Monday, March 23, 2015

प्रश्नोत्तरी ( मानव और राष्ट्र इतिहास विषय )

प्रश्न :- आधुनिक विज्ञान के अनुसार मनुष्य तो केवल कुछ एक लाख वर्ष पूर्व का ही सिद्ध होता है तो आप किस आधार पर ये इतनी बड़ी संख्या कह रहे हैं ?
उत्तर :- वैदिक काल गणना के अनुसार मानव को पृथिवी पर आए आज से 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हज़ार 115 वर्ष ( 1960853115 वर्ष अब विक्रमी सम्वत् 2071 तक ) हो चुके हैं । लेकिन पहले विज्ञान लाख वर्ष तक पहुँचा फिर धीरे धीरे ये लोग मिले मानव के प्राचीन अवशेषों के आधार पर उससे पीछे होते चले गए । Radio Carbon Dating नामक प्रणाली की सहायता से 60 लाख वर्ष पुराना मनुष्य का सिला हुआ जूता मिला है ( Theosophical Path, August 1923 ) । और इसी प्रकार 12 करोड़ वर्ष पुराने एक गुफा में बनाए हुए चित्र मिले हैं जो कि स्पष्ट है मानव ही बना सकता है पशु नहीं । तो ऐसे ही हमें आशा है और सशक्त अनुसंधान से विज्ञान की गणना 12 करोड़ से भी और पीछे होते होते वैदिक गणना तक पहुँच ही जाएगी ।
प्रश्न :- मनुष्यों की उत्पत्ति तिब्बत पर ही क्यों हुई ? कहीं और क्यों नहीं हुई ?
उत्तर :- क्योंकि तिब्बत का हिमालय क्षेत्र ही मनुष्यों के रहने योग्य अनुकूल जलवायु वाला क्षेत्र था और बाकी के द्वीप जल में डूबे हुए थे और हिमालय की ऊँचाई भी उस समय बहुत कम थी ।
प्रश्न :- मनुष्यों ने प्रथम किस देश को बसाया ?
उत्तर :- मनुष्यों ने प्रथम आर्यवर्त देश को बसाया ।
प्रश्न :- आर्यवर्त देश की सीमाएँ वर्तमान स्थिती के अनुसार कहाँ तक थीं ?
उत्तर :- यह उत्तर में हिमालय, विन्ध्याचल, पश्चिम में सिन्धु नदी, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी, दक्षिण में कटक नदी । इन नदीयों के बीच में जितना देश है उसको आर्यवर्त कहते हैं ।
प्रश्न :- देशों के नाम किस आधार पर रखे गए हैं ?
उत्तर :- देशों के नाम मनुष्य जातीयों के आधार पर रखे गए हैं ।
प्रश्न :- आर्यवर्त देश का नाम कैसे पड़ा ?
उत्तर :- आर्यवर्त देश का नाम आर्य लोगों के इस देश को निवास स्थान बनाने पर पड़ा है ।
प्रश्न :- आर्य लोग कौन हैं ?
उत्तर :- श्रेष्ठ और धर्मपूर्वक आचरण करने वाले मनुष्यों को ही आर्य कहा जाता है,जो सृष्टि के प्रथम उत्पन्न हुए और तिब्बत के हिमालय से उतर कर इस देश को अपना निवास स्थान बनाया और आर्यवर्त का नाम दिया ।
प्रश्न :- मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर :- मनुष्य मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं, आर्य और दस्यु ( दुष्ट स्वभाव से युक्त ) । इन्हीं को देव और असुर भी कहा जाता है ।
प्रश्न :- प्रथम सृष्टि में मनुष्य कैसे थे ?
उत्तर :- प्रथम सृष्टि में मनुष्य केवल आर्य ही थे । दस्यु स्वभाव के नहीं थे ।
प्रश्न :- मनुष्यों का विस्तार पूरे आर्यवर्त देश में कैसे हुआ और कैसे मानव ने प्रथम आर्यवर्त को बसाया ?
उत्तर :- पहले हिमालय का स्तर बहुत कम था और समस्त द्वीप जल में डूबे हुए थे । धीरे धीरे समय बीतने पर जल स्तर कम होता गया और हिमालय ऊपर होता गया और मनुष्यों ने तिब्बत से नेपाल होते होते समय के साथ धीरे धीरे आर्यवर्त के दूसरे भागों में प्रवेश करना शुरू किया । पहले उत्तर प्रदेश फिर पंजाब नेपाल से होते हुए असम ब्रह्मपुत्र नदी के तट तक और मध्य भारत के भाग तक । सिन्धू नदी के तट तक आर्यवर्त बसता चला गया । मनुष्यों की आबादी भी बढ़ने लगी थी और वह भूमी पर विस्तार करता गया । मानव भूमी में खेती करने लगा । नगर और ग्राम बसाने लगा । नदियों के किनारे ग्राम बसाए जाने लगे । पर्वतों और नदीयों के पास ही शिक्षा के लिए गुरूकुल खोले जाने लगे । उस समय भूमी बहुत उपजाऊ हुआ करती थी । वृक्षों पर फल भरे रहते थे । वृक्ष कई कई मील की ऊँचे थे जिनके अवशेष अब Discovery वालों द्वारा पाए गए हैं । इस प्रकार धीरे धीरे समय के साथ मानव पूरी भूमी पर फैलता चला गया ।
प्रश्न :- आर्यवर्त में वैदिक काल कैसा था ?
उत्तर :- गुरू शिष्य परम्परा के होने से शिष्य गुरू के पास जाकर सभ्यता सीखता था,मानव बुद्धि असाधारण हुआ करती थी । समाज में वैदिक चतुर वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी । समाज समृद्धिशाली था । रोग अति न्यून था । समय समय पर यदि रोग बढ़ता भी था तो ऋषियों नें अनेकों आयुर्वेद शास्त्रों की रचना करके समाज का महान उपकार भी किया था और रोगों की चिकित्साएँ की थीं । समाजिक अर्थव्यवस्था में धन का प्रयोग न होकर सामान का आदान प्रदान होता था, परिश्रम का आदान प्रदान होता था । पुत्र और पुत्रीयाँ आज्ञाकारी होते थे । जब कोई वृद्ध आता था तो सभी छोटे खड़े होकर प्रेम पूर्वक नमस्ते करते थे । पत्नी और पती में सदाचार और शिष्टाचार का स्तर उच्च हुआ करता था । निंदा चुगली नहीं हुआ करती थी । सभी अपना ज्ञान वृद्धि के लिए प्रयत्न किया करते थे । बिगप कारण के वाद विवाद नहीं हुआ करते थे । पुरुष बलशाली और पराक्रमी होते थे, स्त्रीयाँ सुन्दर और सुशील होती थीं । स्वच्छता का विषेश ध्यान रखा जाता था ।व्याभिचार न के बराबर था । कोई चोर, ठग, और लम्पटी नहीं होता था । तो ऐसी ही आर्यवर्त की वैदिक व्यवस्था थी । शुद्र समाज भी बहुत विनयशील और सदाचारी होता था । आम जन भी संस्कृत में बातें करते थे । धर्म का पालन करना सबके लिए आवश्यक था । स्त्री पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करते थे ।
प्रश्न :- आर्यवर्त का पतन कैसे हुआ ?
उत्तर :- समय के साथ संस्कृतियों में शिथिलता आने लगती है । जो ओजस्विता का सामर्थ्य पूरे आर्यवर्त में उमड़ रहा था । वह समय आने के साथ शिथिल होने लगा । शैथिल्य का कालचक्र आरम्भ हो चुका था । कुछ जनसंख्या का बढ़ना भी अपना प्रभाव दिखा रहा था । व्यभिचार का फैलना आरम्भ हो चला था । बलशाली लोग निर्बलों पर अत्याचार करने लगे । प्रजा में चारों ओर त्राही त्राही होने लगी थी । समाज में वैदिक मर्यादाएँ भंग होने लगीं थीं । और जिसका असर अब दिखने लगा था ।
प्रश्न :- तो इस आर्यवर्त के पतन को रोकने के लिए आर्यों ने क्या किया ?
उत्तर :- जब आर्य इस पतन को ताड़ गए तो उन्होंने इसे रोकने का उपाय किया और सर्वविद्या में सम्पूर्ण और वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता धर्म के धुरंधर महर्षि वैवस्वत मनु के पास जाकर निवेदन किया गया कि आर्यवर्त को पतन से रोकने के लिए कोई दण्ड विधान बनाएँ और कोई ऐसी शासन पद्धति तैय्यार करें जिससे कि प्रजा का महान उपकार हो सके और आप इस आर्यवर्त के प्रथम राजा बनें । पर ऋषि मनु नहीं माने क्योंकि ऋषियों को संसार के शासन से मोह नहीं होता है, परन्तु देवों के बार बार अनुरोध करने पर प्रजा के उपकार के लिए महर्षि मनु ने आर्यवर्त का शासन करना स्विकार किया और राष्ट्र के प्रथम राजा बने । और एक महान ग्रन्थ वैदिक वर्ण व्यवस्था के आधार पर रचा जिसे हम मनु स्मृति के नाम से जानते हैं । जिसमें उन्होंने वैदिक व्यवस्था को भंग करने वालों के लिए कढ़े नियमों का उपादान किया । कारागार और जुर्माने भी लगाए जाते थे । गाली गलौच या अपशब्द करने वाले की जीह्वा काट दी जाती थी । हिंसा करने वाले को अग्नि भेंट कर दिया जाता था । जिससे कि आर्यवर्त में फिर से सुख और स्मृद्धि आने लगी । प्रायश्चित करने के लिए भी कड़े नियम थे जिससे कि मनुष्य सभ्य समाज में पुनः प्रवेश कर सकता था और वही सम्मान प्राप्त कर सकता था । परन्तु सबसे कठोर दण्ड था समाज से बहिष्कृत किया जाना , ये दण्ड मृत्यु से भी बढ़कर था और बहुत बुरा समझा जाता था । जब कोई वैदिक मर्यादाओं को भंग करता था तो उनको आर्य समाज से निकाल कर चतुर्वर्ण से बाहर कर दूर दक्षिण के अरण्यों ( जंगलों ) में भेज दिया जाता था । यदि वो वापिस दस्यु से आर्य बनना चाहे तो उसको मनु के नियमों के अनुसार दण्ड भोग करके पुनः वह आर्य समाज में प्रवेश कर सकता था ।
प्रश्न :- तो ऐसी व्यवस्था करने से परिणाम क्या हुआ ?
उत्तर :- समय के साथ साथ ये जाती बहिष्कार करने का कार्य बहुत उग्र हो चला था । अब वैदिक नियम भंग करने वालों को चुन चुन कर आर्य समाज से बहिष्कृत किया जाने लगा । और देश निकाल लेकर ये लोग दूर दक्षिण भारत के अरण्यों में या उससे भी दूर दूर के द्वीपों पर जा कर बसने लगे । और वहाँ उन स्थानों को अपनी अपनी जाती के नाम से बसाने लगे । कुछ लोग तो दण्ड व्यवस्था का पालन कर पुनः वैदिक आर्य समाज में प्रवेश पा लेते थे परन्तु बहुधा लोग तो आर्यों से ईर्ष्या द्वेष की भावना रखने लगे । और कभी कभी तो ये दस्यु लोग अपनी सेनाएँ लेकर आर्यों से युद्ध भी करते रहे हैं । इन्हीं को संस्कृत के ग्रन्थों में अब देवासुर संग्राम कहा जाता है । और ऐसे ही बहिष्कृत दस्यु लोग आर्यवर्त से हो होकर दूर देशों में बसते चले गए हैं, और उन देशों को अपनी जाती के नाम पर बसाते चले गए हैं । तो ऐसे ही समग्र मानव जाती अपने आर्यत्व से पतित हो होकर पूरी पृथिवी पर फैली है । और इन बहिष्कृत दस्युओं की जातीयों के नाम इनके गुण, कर्म, स्वभाव या इनके नयन नक्षों के आधार पर रखे गए हैं ।
प्रश्न :- दक्षिण में कौन कौन से देश बसे ?
उत्तर :- दक्षिण में मुख्य रूप से कर्णाटक, केरल, आन्ध्र, चोल, पाण्ड्य, द्रविड़, सिंहल आदि देश बसे हैं ।
प्रश्न :- अरब देश कैसे बसा ?
उत्तर :- ईरान के पास अरब देश हैं , आर्यवर्त से ही जाती ''बहिष्कृत ब्राह्मणों'' की एक जाती जिसको कि शैख जाती के नाम से जाना जाता था वहाँ जाकर बसी है । और वह स्थान जहाँ घोड़े बहुत उत्तम नसल के पाए जाते हैं । ऐसे देश को शैखों ने बसाया है । संस्कृत में घोड़े को अर्वन् कहा जाता है और वह स्थान जहाँ घोड़े पाए जाते हों उस स्थान को अर्व कहा जाता है । तो ये शैखों ने ऐसे अर्व देश को बसाया जो समय बीतने पर अर्व से अरब बन गया और शैख लोग शेख बन गए । आज भी अरबी गल्फ देशों में घोड़े दुनिया में सबसे उत्तम नसल के होते हैं । इन शैख ब्राह्मणों को अपने मूल आर्य पूरवजों से घृणा हो चुकी थी जिस कारण इन्होंने अपनी भाषा को भी उलटी दिशा से लिखना शुरू किया । अरब में यहूदी मत आते आते इनकी भाषा अरबी हो चुकी थी । और फिर ये अरब का रेगिस्तान ईसाई और बाद में ईस्लाम हुआ ।
प्रश्न :- द्रविड़, पाण्ड्य, चोल आदि देश किस जातीयों ने बसाए ?
उत्तर :- चोल देश ( तमिलनाडु के नीचे वाला भाग और वर्तमान केरल का कुछ भाग ) आर्यवर्त से बहिष्कृत चोल जाती ने बसाया, संस्कृत में चोरी करने वालों को चौर बोला जाता है, और यही जो चौर स्वभाव वाले लोग थे जिनको इनके स्वभाव के कारण जाती बहिष्कार के दण्ड दिए गए और एक समान मिलजाने पर इनकी एक अलग से दस्यु जाती हो गई जिसको यह चौर शब्द को भ्रष्ट करके चौल या बाद में चोल कहने लगे । तो दक्षिण भारत में यही चोल जाती के लोगों ने चोल प्रदेश को बसाया है । और एसे ही व्यापारियों को आर्य लोग पणिक या वणिक कहते थे, जो कुछ धर्म भ्रष्ट होकर के धन लोलुप हो गए और ऐसे ही लोगों ने समाजिक बहिष्कार के बाद आकर दक्षिण में डेरा डाला और वही पणिक से पाण्ड्य लोग कहलाने लगे और अपने नाम से देश को बसाया । ठीक इसी प्रकार किसी कारण वश दूसरी क्षत्रीय जातीयाँ जैसे द्रविड़, कर्णाटक, केरल और आन्ध्र जातीयों ने दक्षिण भारत में देश प्रदेश अपने अपने नाम से बसाए हैं । यही लोग हैं जिनकी भाषाएँ समय बीतने के साथ ही संस्कृत से भ्रष्ट हो होकर ही तमिल, मलयालम, तेलुगु , कन्नड़ आदि हुई हैं ।
प्रश्न :- सिंहल देश किसने बसाया है ?
उत्तर :- आर्यवर्त के उत्तर में सिंह का शिकार करने वाले क्षत्रीयों को सिंहल कहा जाता था । जैसे वृष या वृष्भ ( बैल ) का शिकार करने वाले क्षत्रीयों को वृषल कहा जाता था । और संस्कृत में सिंह कहते हैं Lion को । तो यही सिंहली क्षत्रीय जाती द्रविड़ आदी प्रदेश को लांघ कर जिस द्वीप पर जाकर बसी उसे ही सिंहल द्वीप के नाम से बसाया है । इसी कारण राजपूताना और महाराष्ट्र के राजपूत क्षत्रीयों को भी सिंहली कहा जाताथा और सम के साथ यह शब्द छोटा होकर सिंह बन गया और क्षत्रीयों के नाम केपीछे लगने लगा । मुख्य रूप से ये क्षत्रीय बंगाल से ही जाकर सिंहल द्वीप पर बसे हैं । और यह सिंहल शब्द ही बिगड़ कर अंग्रेज़ी में Cylon हुआ है । जहाँ आज के श्रीलंका में भी ये दोप्रकार के लोग पाए जाते हैं , सिंहली और तमिल, और इसी कारण लंका के ध्वज पर सिंह का चित्र है जिसने कृपाण को पकड़ रखा है । यह ध्यान रहे कि जो वर्तमान श्रीलंका है वह प्राचीन सिंहल द्वीप का एक छोटा सा ही भाग था समय आने पर लंका की शंका की शेष भूमी अब जल में डूब चुकी है । और सिंहल में पहले सिंहली और बाद में द्रविड़ी जाकर बसे हैं तो ये दोनों ही आर्यों की पतित शाखाएँ ही हैं । और यह लंका भूमी को सुर्वण भूमी भी कहा जाता है । खोजों से पता लगता है कि इस भूमी में बहुत सा सोना निकलता था । और यह बात सत्य है कि यहाँ के सिंहली राजा भी अपने राज्य महलों को सुवर्ण से बनाते रहे हैं । रामायण काल का राजा रावण इसी का उदहारण है । जिसकी लंका में सुवर्ण महल थे । ये बात मनघड़ंत नहीं है । और सिंहल का जो बाकी बचा हुआ भाग था उसमें ये सात द्वीप आते थे :- अंगद्वीप, यवद्वीप, मलयद्वीप, शंखद्वीप, कुशद्वीप, वराहद्वीप आदि भारतवर्ष के अनुद्वीप ही हैं जो कि दर दूर तक फैले थे । जिनमें से कुछ द्वीप जल में डूब चुके हैं और बाकी कुछ अभी भी हैं , जैसे मलयद्वीप ( मलेशिया ) जिसपर द्रविड़ी लोग जाकर बसे जो कि मलयालम भाषा का अधिकतर प्रयोग करते थे । तो यही मलयाली लोगों ने मलेशिया , और ऐसे ही आगे जाकर बलिद्वीप ( इंडोनेशिया ) को बसाया है । तो ऐसे ही पतित आर्यों की शाखाएँ ही विस्तृत हो होकर पूरे विश्व में फैली हैं । ( प्रमाण :- Historical History of the world Vol 1, p.536 )
प्रश्न :- आन्ध्र को किसने बसाया ?
उत्तर :- आन्ध्र को विशाखापट्टनम के तट पर आर्यों में क्षत्रीय महाराज विश्वामित्र के पतित पुत्रों की जाती के आन्ध्र लोगों ने बसाया है ,और आगे यही आन्ध्र लोगों ने द्वीपों को लांघते हुए एक विशाल द्वीप को बसाया जो चारों ओर जल से घिरा हुआ था उसका नाम रखा गया आन्ध्रालय जो समय के साथ विकृत होकर अस्ट्रेलिया देश कहा जाने लगा । अस्ट्रेलिया के मूल निवासीयों को इण्डियन कहा जाता है भारत के लोगों की भांती उनमें भी छुआछूत की प्रथा है वे दूसरों के हाथ का छुआ नहीं खाते हैं । ( प्रमाण :- Hamsworth History of the world p.5675 )
प्रश्न :- चीन देश कैसे बसा और किसने बसाया ?
उत्तर :- महाभारत में भी चीन या फिर महाचीन का उल्लेख आता है जिसका राजा भगदत युधिष्ठिर द्वारा किए राजसूय यज्ञ में आया था । तो इस चीन देश को लगभग 9 करोड़ वर्ष पहले ही तिब्बत के पार आर्यों में से ही निकली सूर्यवंशी क्षत्रीय चीना नाम की जाती ने अपने नाम से बसाया है । चीना शब्द का संस्कृत में अर्थ है तेज़ स्वास्थ्य वाले लोग । तो यही लोग जब हिमालय के दूसरी ओर में जाकर बसे तो इनकी भाषा और संस्कृती बदलती चली गई । लेकिन कुछ बातें इस जाती ने संजो कर रखी जैसे कि चीनी लिप्पी , प्रचीन ब्राह्मी लिप्पी ( जिसमें पहले संस्कृत लिखी जाती थी ) की तर्ज़ पर चित्रलिप्पी है जिसे चित्र बना कर समझाया जाता है । आज इसी चीना जाती को मंगोल जाती के नाम से जाना जाता है जो चीन में फैली और समय के साथ फिर दूर के द्वीपों पर विस्तृत होती गई , मंगोलिया, जापान, कोरिया आदि देशों तक यही पतित क्षत्रीयों का विस्तार हुआ है । ( प्रमाण :- Rigvedic India, p 180 - 181 )
प्रश्न :- अफगानिस्तान कैसे बसा ?
उत्तर :- आर्यों की एक पतित चन्द्रवंशी क्षत्रीय जाती जिसको प्रतिष्ठान कहा जाता था । तो यहाँ इस खैबर पख्तूनख्वा ( पाकिस्तान ) और आगे जो अफगानिस्तान है यहाँ की सत्ता को गणराज्य कहा जाता था । और ऐसे ही सात गणराज्य पूरी अफगानिस्तान की धरती पर फैले थे जिसको महाभारत में पाण्डवों ने जीत भी लिया था । जिनको सप्तगणों का नाम किसी काल में दिया गया था, और प्रतिष्ठानों ने आगे चलकर इसे उपगण या फिर अपगण के नाम से राज्य स्थापित किया है । जो ईस्लाम के आने से पहले अपगणस्थान ही कहलाता रहा है और शब्दों के समय के साथ भ्रष्ट होने के बाद बिगड़ बिगड़ कर ये अफगानिस्तान कहा जाने लगा । और प्रतिष्ठान नामक जाती ( पठान )के नाम से जानी जाने लगी । और ये अफ्रीदी लोग उस समय के गण लोग ही हैं । आज भी किसी समय के प्रतिष्ठान गणराजा महाराजा गजराज सिंह का बसाया हुआ शहर गजनी आज भी उसी नाम से जाना जाता है और महाभारत के प्रतिष्ठान गण राजा शकुनी के राज्य गान्धार का नाम आज कान्धार के नाम से जाना जाता है। ( प्रमाण :- Chips from german workshop, p. 235 )
प्रश्न :- बालोचिस्तान देश कैसे बसा ?
उत्तर :- किरात नामक क्षत्रीय जाती जिस स्थान पर बसी उस स्थान को ही बल में उच्च स्थान का नाम दिया गयप क्योंकि किरात लोग अपने पराक्रम के नाम से जाने जाते रहे हैं । और बल में उच्च होने के कारण देश को नाम दिया गया बल्ल उच्च स्थान , जो समय के साथ भ्रष्ट होकर बालोचिस्तान बन गया ।
प्रश्न :- ईरान देश कैसे बसा ?
उत्तर :- आर्यों के ही पतित रूप पारसी जो कि गण राज्यों से आगे निकल गए वहाँ उस देश को अपनी पूर्व जाती के नाम से बसाया जिसका नाम आर्यान रखा, जो कि समय पड़ने के साथ साथ ही ईरान हो गया । और ये पारसी लोग आर्यवर्त से ही नदियों के नाम भी लगे , जिससे कि इन्होंने अपने देश आर्यान की नदियों के नाम को रखा , जैसे कि हरहवती जो कि सरस्वति नदि का अपभ्रंश रूप है । और एक नदी का नाम सरयू के स्थान पर हरयू नदी रखा । ये वही सरयू नदी है जो उत्तर प्रदेश में बहती है । तो ऐसे ही ईरान देश बसा ।
प्रश्न :- मिस्त्र देश कैसे बसा ?
उत्तर :- मिस्त्र देश जिसको कि आजकल Egypt भी कहते हैं । अफ्रीका और एशिया को स्वेज़ नामक नहर ने प्रचीन काल से अलग कर रखा है । इस नहर को लांघकर ही आर्यों ने मिस्त्र देश को बसाया है । क्योंकि जैसे प्राचीन काल से ही नगरों को नदी के किनारे पर बसाने की प्रथा रही है ठीक वैसे ही आर्यों से पतित द्रविड़ियों और पणिकों ने नील नामक नदी के किनारे मिस्त्र देश को बसाया है । ये लोग Persian Gulf से होते हुए वहाँ अफ्रीकी देश मिस्त्र को गए हैं । मिस्त्र देश के तीन नाम हैं कमित, हपि और मिस्त्र । कुमृत् शब्द संस्कृत का है जिसका अर्थ है काली मिट्टी, तो जिस देश की मिट्टी काली है जो नील नदी के किनारे बसा है वह कुमृत् हुआ और समय के बीतने से ये नाम विकृत होकर कमित बन गया । अप का अर्थ है पानी नील नदी दुनिया में सबसे बड़ी है जिसके जल को अप और नदी को अपि जो समय के साथ बिगड़ कर हपि हो गया है । तीसरा शब्द है मिस्त्र जिसका संस्कृत में अर्थ हुआ मिश्रित तो यह नाम किस आधार पर पड़ा यह कहना कठिन है । और ये मिस्त्र निवासी ममीयों की कब्रों के लिए इमली की लकड़ीयों का प्रयोग करते रहे हैं । तो यह इमली की लकड़ी मद्रास प्रांत से ही वहाँ गई है जिससे सिद्ध है कि वे लोग आर्यों की शाखा हैं । इनके पिरामिडों की लिप्पीयों से पता चला है कि ये लोग अपने को सूर्यवंशी मानते थे और सूर्य की पूजा करते थे, और मनु को ही अपना मूल पुरुष समझते रहे हैं । जिससे कि ये लोग आर्य ही सिद्ध होते हैं । ( प्रमाण :- India in Greece p.178 )
प्रश्न :- अफ्रीका के बाकी देश कैसे बसे ?
उत्तर :- आर्यों की ही एक पतिति क्षत्रीय जाती थी झल्ल जिसने मिस्त्र पार करके अफ्रीका को बसाया है यही झल्ल लोगों को समय के साथ जुलू कहा जाने लगा । और अधिकतर ये लोग काले होते हैं । ऐतरेय ब्राह्मण के ३१ अध्याय के अन्त में मन्त्र आता है जिसमें लिखा है कि दुष्यन्त के पुत्र राजा भरत ने मष्णार नामक देश में सुवर्ण अलंकारों से युक्त बड़े बड़े श्वेत दाँतों वाले हाथीयों के एक सौ सात वृंद दान में दिए । और साथ ही इस मंत्र में लिखा है कि राजा भरत से पहले या बाद में ऐसा किसी और ने नहीं किया है । अब प्रश्न ये उठता है कि ये मष्णार देश है कहाँ पर ? Menual Of Geography देखने पर पता चलता है कि ये अफ्रीकाखण्ड में दक्षिणी रोडेशिया देश है, जहाँ मष्णा नामक स्थान है । पूर्व काल में यहाँ बहुत सोना होता था और हाथीयों की बहुतायात थी ऐसा वहाँ पर विद्यमान प्रचीन खण्डरों से पता लगा है । तो यही मष्णा नामक देश वही मष्णार है । जिसके बारे में ऐतरेय ब्राह्मण लिखता है । एक और प्रमाण इस प्रकार है कि भविष्य पुराण में आता है कि ( रथक्रान्ते नराः कृष्णाः प्रायशो विकृताननाः । आममांसभुजाः सर्वे शूराः कुंचितमूर्द्धजाः ) जिसका अर्थ है कि यहाँ मष्णार में रहने वाले लोग काले, विकृत मूँह वाले, कच्चा माँस खाने वाले और सिर से घुंघराले बाल वाले होते हैं । यही स्थिति आजकल सभी अफ्रीका वासीयों की है जिनको हम Nigros कहते हैं । तो ये लोग भी इसी प्रकार आर्यवर्त से यहाँ आकर किसी काल में बसे हैं ।
प्रश्न :- तो क्या सारी मानव जाती ही ऐसे आर्यवर्त से जा जाकर दूर देश में बसी है ?
उत्तर :- अवश्य ही ऐसा है कि आबादी बढ़ने के साथ साथ और ऐसे ही कुछ जाती बहिष्कार के दण्ड से ही मानव पूरी भूमी पर फैल गया है । और ऐसे ही अफ्रीका से युरोप देशों तक मानव का विस्तार हो गया है । तो ऐसे में पूरी मानव जाती एक ही सिद्ध होती है ।
प्रश्न :- लेकिन आर्य लोग तो बाहर के देशों से आए हम तो ऐसा मानते हैं और यहाँ के मूल निवासी तो तोई और हैं, क्ता ये बात गलत है ?
उत्तर :- आर्य लोग ही आर्यवर्त के मूल निवासी हैं, और बाहर किसी देश से आने का प्रश्न नहीं बल्की आर्य ही बाहर जाकर किसी दूसरे देशों में बसे हैं जैसे हमने कुछ देशों के उदाहरणों से आपको ऊपर सिद्ध किया है । हाँ आर्य लोग बाहर विदेशों में जाकर बसते रहे हैं और कुछ लोग वापिस घूम फिर कर अपने देश में आए हों तो बात मानने वाली हैं । तो मूल निवासी तो पूरी पृथिवी का मनुष्य एक ही है । आर्यों के बाहर विदेशों से आने की बातें तो ईसाईयों और अम्बेदकर वादीयों ने आर्यों से घृणा और द्वेष फैलाने के । उद्देश्य से लिखी हैं । क्योंकि उनकी बातें पक्षपात पूर्ण और तार्किक वैज्ञानिक आधार पर कहीं ठहरती नहीं हैं । और ये अम्बेदकर के पुत्रों का मान्सिक स्तर बिगड़ा हुआ है , जब इनसे पूछो कि आर्य लोग किस देश से आकर बसे थे ? तो पहले तो ये लोग उत्तर में ब्राह्मण ब्राह्मण चिल्ला कर आपको माँ बहन की गंदी गालीयाँ देंगे, और फिर कोई बोलेगा कि आर्य ईरान से आए ,कोई कहेगा युरोप से आए । तो ऐसे मूर्खतापूर्वक कुतर्क करके ये बौद्ध अम्बेदकरवादी अपने माता पिता के संस्कारों का प्रदर्शन करते रहते हैं ।
मानव जाती एक है ,अतः आर्यों लौट चलो वेदों की ओर ।।
ओ३म् तत् सत् ।।

Sunday, March 15, 2015

बलात्कार एक बङी समस्या

'' कल जब हम दिल्ली गए हुए थे तो वहाँ पर एक लङकी ने हमसे पूछा यार इस देश मे रेप कब बंद होगेँ
तो हमने कहा बहन मे तुम्हे एक कहानी सुनाती हुँ ध्यान से सुनना

! एक लङकी थी रात को आँफिस से वापस लोट रही थी तो देर भी हो गई थी पहली बार ऐसा हुआ ओर काम भी ज्यादा था तो टाइम का पता ही नही चला
वो सीधे बस स्टेशन पहुँची
वहाँ एक लङका खङा था वो लङकी उसे देखकर डर गई की कही उल्टा सीधा ना हो जाए
तभी वो लङका पास आया ओर कहा बहन तू मौका नही जिम्मेदारी हे मेरी ओर जब तक तुझे कोई गाङी नही मिल जाती मैँ तुम्हे छोङकर कहीँ नही जाउँगा
'' dont worry
वहाँ से एक ओटो वाला गुजर रहा था लङकी को अकेली लङके के साथ देखा तो तुरंत ओटो रोक दी ओर कहा
कहाँ जाना हे मेडम आइये मे आपको छोङ देता हुँ
लङकी ओटो मे बेठ गई रास्ते मे वो ओटो वाला बोला तुम मेरी बेटी जैसी हो इतनी रात को तुम्हे अकेला देखा तो ओटो रोक दी आजकल जमाना खराब हेना और अकेली लङकी मौका नही जिम्मेदारी होती हे
लङकी जहाँ रहती थी वो एरिया आ चुका था वो ओटो से उतर गई
ओर ओटो वाला चला गया
लेकिन अब भी लङकी को दो अंधेरी गली से होकर गुजरना था

वहाँ से सिर्फ चलकर गुजरना था
तभी वहाँ से पानीपुरी वाला गुजर रहा था शायद वो भी काम से वापस घर की ओर गुजर रहा था
लङकी को अकेली देखकर कहा आओ मेँ तुम्हे घर तक छोङ देता हुँ उसने अपने ठेले को वही छोङकर एक टोर्च लेकर उस लङकी के साथ अंधेरी गली की और निकल पङा

वो लङकी घर पहुँच चुकी थी आज किसी की बेटी , बहन सही सलामत घर पहुँच चुकी थी

मेरे भारत को तलाश हे ऐसे तीन लोगो की
1) वो लङका जो बस स्टेड पर खङा था
2)वो ओटो वाला ओर
3) वो पानीपुरी वाला

जिस दिन ये तीन लोग मिल जाएगे उस दिन मेरे भारत मेँ रेप होना बंद हो जाएंगे

धन्यवाद

देह अमर नहीं

एक राजा को फूलों का शौक था। उसने सुंदर, सुगंधित फूलों के पचीस गमले अपने शयनखंड के प्रांगण में रखवा रखे थे। उनकी देखभाल के लिए एक नौकर रखा गया था। एक दिन नौकर से एक गमला टूट गया। राजा को पता चला तो वह आगबबूला हो गया। उसने आदेश दिया कि दो महीने के बाद नौकर को फांसी दे दी जाए। मंत्री ने राजा को बहुत समझाया, लेकिन राजा ने एक न मानी। फिर राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जो कोई टूटे हुए गमले की मरम्मत करके उसे ज्यों का त्यों बना देगा, उसे मुंहमांगा पुरस्कार दिया जाएगा। कई लोग अपना भाग्य आजमाने के लिए आए लेकिन असफल रहे।

एक दिन एक महात्मा नगर में पधारे। उनके कान तक भी गमले वाली बात पहुंची। वह राजदरबार में गए और बोले, ‘राजन् तेरे टूटे गमले को जोड़ने की जिम्मेदारी मैं लेता हूं। लेकिन मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं कि यह देह अमर नहीं तो मिट्टी के गमले कैसे अमर रह सकते हैं। ये तो फूटेंगे, गलेंगे, मिटेंगे। पौधा भी सूखेगा।’ लेकिन राजा अपनी बात पर अडिग रहा।

आखिर राजा उन्हें वहां ले गया जहां गमले रखे हुए थे। महात्मा ने एक डंडा उठाया और एक-एक करके प्रहार करते हुए सभी गमले तोड़ दिए। थोड़ी देर तक तो राजा चकित होकर देखता रहा। उसे लगा यह गमले जोड़ने का कोई नया विज्ञान होगा। लेकिन महात्मा को उसी तरह खड़ा देख उसने आश्चर्य से पूछा, ‘ये आपने क्या किया?’ महात्मा बोले, ‘मैंने चौबीस आदमियों की जान बचाई है। एक गमला टूटने से एक को फांसी लग रही है। चौबीस गमले भी किसी न किसी के हाथ से ऐसे ही टूटेंगे तो उन चौबीसों को भी फांसी लगेगी। सो मैंने गमले तोड़कर उन लोगों की जान बचाई है।’ राजा महात्मा की बात समझ गया। उसने हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगी और नौकर की फांसी का हुक्म वापस ले लिया।

आल्हाखण्ड

आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं।
उल्लेखनीय तथ्य

    'आल्हाखण्ड' में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था।
    आरम्भ में वह वीर रस-प्रधान एक लघु लोकगाथा (बैलेड) रही होगी, जिसमें और भी परिवर्द्धन होने पर उसका रूप गाथाचक्र (बैलेड साइकिल) के समान हो गया, जो कालान्तर में एक लोक महाकाव्य के रूप में विकसित हो गया।
    'पृथ्वीराजरासो' के सभी गुण-दोष 'आल्हाखण्ड' में भी वर्तमान हैं, दोनों में अन्तर केवल इतना है कि एक का विकास दरबारी वातावरण में शिष्ट, शिक्षित-वर्ग के बीच हुआ और दूसरे का अशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच।
    'आल्हाखण्ड' पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। शब्द-चयन, अलंकार विधान, उक्ति-वैचित्र्य, कम शब्दों में अधिक भाव भरने की प्रवृत्ति प्रसंग-गर्भत्व तथा अन्य काव्य-रूढ़ियों और काव्य-कौशल का दर्शन उसमें बिलकुल नहीं होता। इसके विपरीत उसमें सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। उसमें वीर रस की इतनी गहरी और तीव्र व्यंजना हुई है और उसके चरित्रों को वीरता और आत्मोत्सर्ग की उस ऊँची भूमि पर उपस्थित किया गया है कि उसके कारण देश और काल की सीमा पार कर समाज की अजस्त्र जीवनधारा से 'आल्हखण्ड' की रसधारा मिलकर एक हो गयी है।
    इसी विशेषता के कारण उत्तर भारत की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से 'रामचरितमानस' के बाद 'आल्हाखण्ड' का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है।

आल्हाखण्ड की लोकप्रियता

कालिंजर के राजा परमार के आश्रय मे जगनिक नाम के एक कवि थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-

    बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार।
    बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।

इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों, (जैसे बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था। इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।
आल्हा-ऊदल के गीत

आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है, वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में -विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है। आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं। इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था।
आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का ज़िक्र है। शुरूआत मांड़ौ की लड़ाई से है। मांड़ौ के राजा करिंगा ने आल्हा-ऊदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। ऊदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र 12 वर्ष थी। आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-

मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।

अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है:-

    ‘जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।’

इसी का अनुसरण करते हुये तमाम किस्से उत्तर भारत के बीहड़ इलाकों में हुये जिनमें लोगों ने आल्हा गाते हुये नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा।

पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-

    जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह!

स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना सहज गुण बताये गये हैं:-

    जहां पसीना गिरै तुम्हारा तंह दै देऊं रक्त की धार।

आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना का कई जगह बखान गया है। इक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल की बहुत पिटाई की:-

    हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।

ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-

    हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आय
    कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।

यद्यपि आल्हा में वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है तथापि मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड का वैशिष्ट्य बुन्देली का अपना है। महोबा 12वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस प्रबन्ध काव्य में है। इसकी प्रामाणिकता के लिए न तो अन्तःसाक्ष्य ही उपादेय और न बर्हिसाक्ष्य। इतिहास में परमार्देदेव की कथा कुछ दूसरे ही रुप में है परन्तु आल्हा खण्ड का राजा परमाल एक वैभवशाली राजा है, आल्हा और ऊदल उसके सामन्त है। यह प्रबन्ध काव्य समस्त कमज़ोरियों के बावजूद बुन्देलों जन सामान्य की नीति और कर्तव्य का पाठ सिखाता है। बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा जमता है।
भरी दुपहरी सरवन गाइये, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पवाड़ा वादिन गाइये, जा दिन झड़ी लगे दिन रात।।

Tuesday, March 10, 2015

हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास !

हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास !

हिंदु वेदों को मान्यता देते हैं और वेदों में विज्ञान बताया गया है। केवल सौ वर्षों में पृथ्वी को नष्टप्राय बनाने के मार्ग पर लाने वाले आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा, अत्यंत प्रगतिशील एवं एक भी समाज विघातक शोध न करनेवाला प्राचीन ‘हिंदु विज्ञान’ था।
पूर्वकाल के शोधकर्ता हिंदु ऋषियों की बुद्धि की विशालता देखकर आज के वैज्ञानिकों को अत्यंत आश्चर्य होता है। पाश्चात्त्य वैज्ञानिकों की न्यूनता सिद्ध करनेवाला शोध सहस्रों वर्ष पूर्व ही करने वाले हिंदु ऋषि-मुनि ही खरे वैज्ञानिक शोधकर्ता हैं।

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• गुरुत्वाकर्षण का गूढ उजागर करनेवाले भास्कराचार्य !
भास्कराचार्य जी ने अपने (दूसरे) ‘सिद्धांत शिरोमणि’ ग्रंथ में विषय में लिखा है कि, ‘पृथ्वी अपने आकाश का पदार्थ स्व-शक्ति से अपनी ओर खींच लेती हैं । इस कारण आकाश का पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’ । इससे सिद्ध होता है कि, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का शोध न्यूटन से ५०० वर्ष पूर्व लगाया।
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• परमाणु शास्त्र के जनक आचार्य कणाद !
अणुशास्त्रज्ञ जॉन डाल्टनके २५०० वर्ष पूर्व आचार्य कणादजीने बताया कि, ‘द्रव्यके परमाणु होते हैं । ’विख्यात इतिहासज्ञ टी.एन्. कोलेबु्रक जी ने कहा है कि, ‘अणुशास्त्र में आचार्य कणाद तथा अन्य भारतीय शास्त्रज्ञ युरोपीय शास्त्रज्ञों की तुलना में विश्व विख्यात थे।’
• कर्करोग प्रतिबंधित करनेवाला पतंजलीऋषिका योगशास्त्र !
‘पतंजली ऋषि द्वारा २१५० वर्ष पूर्व बताया ‘योगशास्त्र’, कर्करोग जैसी दुर्धर व्याधि पर सुपरिणामकारक उपचार है । योगसाधना से कर्करोग प्रतिबंधित होता है ।’ – भारत शासन के ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्था’के (‘एम्स’के) ५ वर्षों के शोध का निष्कर्ष !
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• औषधि-निर्मिति के पितामह : आचार्य चरक !
इ.स. १०० से २०० वर्ष पूर्व काल के आयुर्वेद विशेषज्ञ चरकाचार्यजी। ‘चरकसंहिता’ प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथ के निर्माणकर्ता चरक जी को ‘त्वचा चिकित्सक’ भी कहते हैं। आचार्य चरक ने शरीर शास्त्र, गर्भ शास्त्र, रक्ताभिसरण शास्त्र, औषधि शास्त्र इत्यादि के विषय में अगाध शोध किया था। मधुमेह, क्षयरोग, हृदयविकार आदि दुर्धररोगों के निदान एवं औषधोपचार विषयक अमूल्य ज्ञान के किवाड उन्होंने अखिल जगत के लिए खोल दिए। चरकाचार्यजी एवं सुश्रुताचार्य जी ने इ.स. पूर्व ५००० में लिखे गए अर्थववेद से ज्ञान प्राप्त करके ३ खंड में आयुर्वेद पर प्रबंध लिखे।
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• शल्यकर्म में निपुण महर्षि सुश्रुत !
६०० वर्ष ईसापूर्व विश्व के पहले शल्य चिकित्सक (सर्जन) महर्षि सुश्रुत शल्य चिकित्सा के पूर्व अपने उपकरण उबाल लेते थे । आधुनिक विज्ञान ने इसका शोध केवल ४०० वर्ष पूर्व किया ! महर्षि सुश्रुत सहित अन्य आयुर्वेदाचार्य त्वचारोपण शल्यचिकित्सा के साथ ही मोतियाबिंद, पथरी, अस्थिभंग इत्यादिके संदर्भमें क्लिष्ट शल्यकर्म करने में निपुण थे । इस प्रकार के शल्यकर्मों का ज्ञान पश्चिमी देशों ने अभी के कुछ वर्षों में विकसित किया है !
महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखित ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के विषय में विभिन्न पहलू विस्तृत रूप से विशद किए हैं । उसमें चाकू, सुईयां, चिमटे आदि १२५ से भी अधिक शल्यचिकित्सा हेतु आवश्यक उपकरणोंके नाम तथा ३०० प्रकार के शल्यकर्मोंका ज्ञान बताया है।
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• नागार्जुन
नागार्जुन, ७वीं शताब्दी के आरंभ के रसायन शास्त्र के जनक हैं। इनका पारंगत वैज्ञानिक कार्य अविस्मरणीय है। विशेष रूपसे सोने धातुपर शोध किया एवं पारे पर उनका संशोधन कार्य अतुलनीय था। उन्होंने पारे पर संपूर्ण अध्ययन कर सतत १२ वर्ष तक संशोधन किया । पश्चिमी देशों में नागार्जुन के पश्चात जो भी प्रयोग हुए उनका मूलभूत आधार नागार्जुन के सिद्धांत के अनुसार ही रखा गया।
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• बौद्धयन
२५०० वर्ष पूर्व (५०० इ.स.पूर्व) ‘पायथागोरस सिद्धांत’की खोज करनेवाले भारतीय त्रिकोणमितितज्ञ । अनुमानतः २५०० वर्ष पूर्व भारतीय त्रिकोणमितिवितज्ञों ने त्रिकोणमितिशास्त्र में महत्त्वपूर्ण शोध किया। विविध आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोज निकाली। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में परिवर्तन करना, इस प्रकार के अनेक कठिन प्रश्नों को बौद्धयन ने सुलझाया।
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• ऋषि भारद्वाज
राइट बंधुओंसे २५०० वर्ष पूर्व वायुयान की खोज करनेवाले भारद्वाज ऋषि !
आचार्य भारद्वाज जी ने ६०० वर्ष इ.स.पूर्व विमानशास्त्र के संदर्भमें महत्त्वपूर्ण संशोधन किया। एक ग्रह से दूसरे ग्रहपर उडान भरनेवाले, एक विश्व से दूसरे विश्व उडान भरनेवाले वायुयान की खोज, साथ ही वायुयान को अदृश्य कर देना इस प्रकार का विचार पश्चिमी शोधकर्ता भी नहीं कर सकते। यह खोज आचार्य भारद्वाज जी ने कर दिखाया।
पश्चिमी वैज्ञानिकों को महत्वहीन सिद्ध करनेवाले खोज, हमारे ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही कर दिखाया था। वे ही सच्चे शोधकर्ता हैं।
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• गर्गमुनि
कौरव-पांडव काल में तारों के जगत के विशेषज्ञ गर्ग मुनि जी ने नक्षत्रों की खोज की। गर्ग मुनि जी ने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के जीवन के संदर्भ में जो कुछ भी बताया वह शत प्रतिशत सत्य सिद्ध हुआ। कौरव-पांडवों का भारतीय युद्ध मानव संहारक रहा, क्योंकि युद्धके प्रथम पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी । इसके द्वितीय पक्ष में भी तिथि क्षय थी । पूर्णिमा चौदहवें दिन पड गई एवं उसी दिन चंद्रग्रहण था, यही घोषणा गर्ग मुनि जीने भी की थी