पुरातात्विक साहित्यिक शोधों कि विपुलता ने इतने नये तथ्य प्रस्तुत किए हैं कि भारतवर्ष के समग्र इतिहास से पनरालेखन की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है। "बुंदेलखंड' का इतिहास भी इसी प्रकार नयी शोधों के संदर्भ में आलेखन की अपेक्षा रखता है। "बुंदेलखंड 'शब्द मध्यकाल से पहले इस नाम से प्रयोग में नहीं आया है। इसके विविध नाम और उनके उपयोग आधुनिक युग में ही हुए हैं। बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक में रायबहादुर महाराजसिंह ने बुंदेलखंड का इतिहास लिखा था। इसमे बुंदेलखंड के अन्तर्गत आने वाली जागीरों और उनके शासकों के नामों की गणना मुख्य थी। दीवान प्रतिपाल सिंह ने तथा पन्ना दरबार के प्रसिद्ध कवि "कृष्ण' ने अपने स्रोतों से बुंदेलखंड के इतिहास लिखे परन्तु वे विद्वान भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनाओं के प्रति उदासीन रहे।
पं० हरिहर निवास द्विवेदी ने "मध्य भारत का इतिहास' ग्रंथ में बुंदेलखंड की राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा प्रकारांतर से की है। इस ग्रंथ में कुछ स्थानों पर बुंदेलखंड का इतिहास भी आया है। एक उत्तम प्रयास पं० गोरेलाल तिवारी ने किया और "बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास' लिखा जो अब तक के ग्रंथो से सबसे अलग था परन्तु तिवारीजी ने बुंदेलखंड का इतिहास समाजशास्रीय आधार पर लिख कर केवल राजनैतिक घटनाओं के आधार पर लिखा है।
बुंदेलखंड सुदूर अतीत में शबर, कोल, किरात, पुलिन्द और निषादों का प्रदेश था। आर्यों के मध्यदेश में आने पर जन जातियों ने प्रतिरोध किया था। वैदिक काल से बुंदेलों के शासनकाल तक दो हज़ार वर्षों में इस प्रदेश पर अनेक जातियों और राजवंशं ने शासन किया है और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से इन जातियों के मूल संस्कारों को प्रभावित किया है। विभिन्न शासकों में मौर्य, सुंग, शक, हुण, कुषाण, नाग, वाकाटक, गुप्त, कलचुरि, चन्देल, अफगान, मुगल, बुंदेला, बघेल, गौड़, मराठ और अंग्रेज मुख्य हैं।
ई० पू० ३२१ तक वैदिक काल से मौर्यकाल तक का इतिहास वस्तुत: बुंदेलखंड का "पौराणिक-इतिहास' माना जा सकता है। इसके समस्त आधार पौराणिक ग्रंथ है।
समस्त भारतीय इतिहासों में "मनु' मानव समाज के आदि पुरुष हैं। इनकी ख्याति कोसल देश में अयोध्या को राजधानी बनाने और उत्तम-शासन व्यवस्था देने में है। महाभारत और रघुवंश के आधार पर माना जाता है कि मनु के उपरांत इस्वाकु आऐ और उनके तीसरे पुत्र दण्डक ने विन्धयपर्वत पर अपनी राजधानी बनाई धी । मनु के समानान्तर बुध के पुत्र पुरुखा माने गए हैं इनके प्रपौत्र ययति थे जिनके ज्येष्ठ पुत्र यदु और उसके पुत्र कोष्टु भी जनपद काल में चेदि (वर्तमान बुंदेलखंड) से संबंद्ध रहे हैं। एक अन्य परंपरा कालिदास के "अभिज्ञान शाकुंतल' से इस प्रकार मिलती है कि दुष्यंत के वंशज कुरु थे जिनके दूसरे पुत्र की शाखा में राजा उपरिचर-वसु हुए थे । इनकी ख्याति विशेष कर शौर्य के कारण हुई है। इनके उत्रराधिकारियों को भी चेदि, मत्स्य आदि प्रांतो से संबंधित माना गया है। बहरहाल पौराणिक काल में बुंदेलखंड प्रसिद्ध शासकों के अधीन रहा है जिनमें चन्द्रवंशी राजाओं की विस्तृत सूची मिलती है। पुराणकालीन समस्त जनपदों की स्थिति बौद्धकाल में भी मिलती है। चेदि राज्य को प्राचीन बुंदेलखंड माना जा सकता है। बौद्धकाल में शाम्पक नामक बौद्ध ने बागुढ़ा प्रदेश में भगवान बुद्द के नाखून और बाल से एक स्तूप का निर्माण कराया था। वर्तमान मरहूत (वरदावती नगर) में इसके अवशेष विद्यमान हैं।
बौद्ध कालीन इतिहास के संबंध में बुंदेलखंड में प्राप्त तत्युगीन अवशेषों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की स्थिती में इस अवधि में कोई लक्षणीय परिवर्तन नहीं हुआ था। चेदि की चर्चा न होना और वत्स, अवन्ति के शासकों का महत्व दर्शाया जाना इस बात का प्रमाण है कि चेदि इनमें से किसी एक के अधीन रहा होगा। पौराणिक युग का चेदि जनपद ही इस प्रकार प्राचीन बुंदेलखंड है।
मौर्यों के पहले का राजनैतिक जो कि बुंदेलखंड क्षेत्र की चर्चा करता हो उपलब्ध नहीं है। वर्तमान खोजों तथा प्राचीन वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला, भित्तिचित्रों आदि के आधार पर कहा जा सकता है कि जनपद काल के बाद प्राचीन चेदि जनपद बाद में पुलिन्द देश के साथ मिल गया था ।
सबसे प्राचीन साक्ष्य "एरन' की परातात्विक खोजों और उत्खननों से उपलब्ध हुए हैं। ये साक्ष्य ३०० ई० पू० के माने गए हैं। इस समय एरन का शासक धर्मपाल था जिसके संबंध में मिले सिक्कों पर "एरिकिण' मुद्रित है। त्रिपुरी और उज्जयिनि के समान एरन भी एक गणतंत्र था । मौर्यशासन के आते ही समस्त बुंदेलखंड (जिनमें एरन भी था) उसमे विलीयत हुआ। मत्स्य पुराण और विष्णु पुराण में मौर्य शासन के १३० वर्षों का यह साक्ष्य है-
उद्धरिष्यति कौटिल्य सभा द्वादशीम, सुतान्।
मुक्त्वा महीं वर्ष शलो मौर्यान गमिष्यति।।
इत्येते दंश मौर्यास्तु ये मोक्ष्यनिंत वसुन्धराम्।
सप्त त्रींशच्छतं पूर्ण तेभ्य: शुभ्ङाग गमिष्यति।
मौर्य वंश के तीसरे राजा अशोक ने बुंदेलखंड के अनेक स्थानों पर विहारों, मठों आदि का निर्माण कराया था । वर्तमान गुर्गी (गोलकी मठ) अशोक के समय का सबसे बड़ा विहार था। बुंदेलखंड के दक्षिणी भाग पर अशोक का शासन था जो उसके उज्जयिनी तथा विदिशा मे रहने से प्रमाणित है। परवर्ती मौर्यशासक दुर्बल थे और कई अनेक कारण थे जिनकी वजह से अपने राज्य की रक्षा करने मे समर्थ न रहै फलत: इस प्रदेश पर शुङ्ग वंश का कब्जा हुआ जिसे विष्णु पुराण तथा मत्स्य पुराण में इस प्रकार दिया है -
तेषामन्ते पृथिवीं दस शुङ्गमोक्ष्यन्ति ।
पुण्यमित्रस्सेना पतिस्स्वामिनं हत्वा राज्यं करिष्यति ।।
विष्णुपुराण
तुभ्य: शुङ्गमिश्यति।
पुष्यमिन्नस्तु सेनानी रुद्रधृत्य स वृहदथाल
कारयिष्यीत वै राज्यं षट् त्रिशंति समानृप:।।
मत्स्य पुराण
वृहद्थों को भास्कर पुण्यमित्र का राज्य कायम होना वाण के "हषचरित' से भी समर्थित है। शुङ्ग वंश भार्गव च्वयन के वंशाधर शुनक के पुत्र शोनक से उद्भूल है। इन्होंने ३६ वर्षों तक इस क्षेत्र में राज्य किया। इसके उपरांत गर्दभिल्ला और नागों का अधिकार इस प्रदेश पर हुआ। भागवत पुराण और वायुपुराण में किलीकला क्षेत्र का वर्णन आया है। ये किलीकला क्षेत्र और राज्य विन्ध्यप्रदेश (नागौद) था। नागों द्वारा स्थापित शिवाल्यों के अवशेष भ्रमरा (नागौद) बैजनाथ (रीवाँ के पास) कुहरा (अजयगढ़) में अब भी मिलते हैं। नागों के प्रसिद्ध राजा छानाग, त्रयनाग, वहिनाग, चखनाग और भवनाग प्रमुख नाग शासक थे। भवनाग के उत्तराधिकारी वाकाटक माने गए हैं।
पुराणकाल में बुंदेलखंड का अपना एक महत्व था, मौर्य के समय में तथा उनके बाद भी यह प्रदेश अपनी गरिमा बनाए हुए था तथा इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य हुए।
डा० वी० पी- मिरांशी के अनुसार वाकाटक वंश का सर्वश्रेष्ठ राजा विन्ध्यशक्ति का पुत्र प्रवरसेन था। इसने अपने साम्राजय का विस्तार उत्तर में नर्मदा से आगे तक किया था। पुराणों में आये वर्णन के अनुसार उसने परिक नामक नगरी पर अधिकार किया था जिसे विदिशा राज के नागराज दैहित्र शिशुक ने अपने अधीन कर रखा था। पुरिका प्रवरसेन के राज्य की राजधानी भी रही है।
वाकाटक राज्य की परम्परा तीन रुपों में पाई जाती है -
क) स्वतंत्र वाकाटक साम्राज्य
ख) गुप्तकालीन वाकाटक साम्राजय
ग) गुप्तों के उपरान्त वाकाटक साम्राजय
कुन्तीदेवी अग्निहोत्री का विचार है कि सन ३४५ से वाकाटक गुप्तों के प्रभाव में आये और पाँचवीं शताब्दी के मध्य तक उनके आश्रित रहे हैं। कतिपय विद्वान विन्ध्यशक्ति के समय से सन् २५५ तक वाकाटकों का काल मानते हैं। ये झाँसी के पास बागाट स्थान से उद्भूत है अत: बुंदेलखंड से इनका विशेष संबंध रहा है।
प्रमुख वाकाटक शासक :
१) प्रवरसेन प्रथम सन २७५ ई० से३३५ ई०
२) रुद्रसेन प्रथम ३३५ ई० से ३६० ई०
३) पृथ्वीसेन ३६० ई० से ३८५ ई०
४) रुद्रसेन द्वितीय ३९० ई० से ४१० ई०
५) प्रवरसेन द्वितीय ४१० ई० से ४४० ई०
६) नरेन्द्रसेन ४४० ई० से ४६० ई०
७) पृथ्वीसेन द्वितीय ४६० ई० से ४८० ई०
८) हरिसेन
इतिहासकारों के अनुसार हरिसेन ने पश्चिमी और पूर्वी समुद्र के बीच की सारी भूमि पर राज किया था।
गुप्तवंश का उद्भव उत्तरी भारत में चतुर्थ शताब्दी में हुआ था। चीनी यात्री ह्येनसांग जिस समय बुंदेलखंड में आया था, उस समय भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त का शासनकाल था। उसने वाकाटकों को अपने अधीन कर लिया था । कलचुरियों के उद्भव का समय भी इसी के आसपास माना गया है। समुद्रगुप्त की दिग्विजय और "एरन' पर उसका अधिकार शिलालेखों और ताम्रपटों के आधार पर सभी इतिहासकारों ने माना है, "एरन' की पुरातात्विक खोजों को प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी पुस्तिका "सागर थ्रू एजेज' में प्रस्तुत किया है।
एरन के दो नाम मिलते हैं "एरिकण और "स्वभोनगर' ।
स्वभोनगर से स्पष्ट है कि यह वैभव की नगरी रही है। हटा तहसील (वर्तमान दमोह जिला) के सकौर ग्राम में २४ सोनो के सिक्के मिले हैं जिनमें गुप्तवंश के राजाओं के नाम अंकित हैं। इससे स्पष्ट है कि गुप्तों के समय में बुंदेलखंड एक वैभवशाली प्रदेश था । स्कन्दगुप्त के उपरांत बुंदेलखंड बुधगुप्त के अधीन था। इसकी देखरेख मांडलीक सुश्मिचंद्र करता था। सुश्मिचंद्र ने मैत्रायणीय शाखा के मातृविष्णु और धान्य विष्णु ब्राह्मणों को एरन का शासक बनाया था जिसकी पुष्टि "एरण' के स्तम्भ से होती है। सुश्मिचंद्र गुप्त का शासन यमुना और नर्मदा के बीच के भाग पर माना गया है।
गुप्तों की अधीनता स्वीकार करने वालों में उच्छकल्प और परिव्राजकों का नाम लिया जाता है। पाँचवी शताब्दी के आसपास उच्छकल्पों की राजसत्ता की स्थापना हुई थी। ओधदेव इस वंश का प्रतीक था। इस वंश के चौथे शासक व्याघ्रदेव के वाकाटकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इसके शासकों में जयनाथ और शर्वनाथ के शासनकाल के अनेक दानपत्र उपलब्ध हुए हैं जिनसे पता चलता है कि उच्छकल्पों की राजधानी "उच्छकल्प' (वर्तमान ऊँचेहरा) में थी। इनके शासन में आने वाले भूभाग के "महाकान्तर' प्रदेश कहा जाता है। इसी के पास परिव्राजकों की राजधानी थी । विक्रम की चौथी सदी में परिव्राजकों ने अपने राज्य की स्थापना की थी । इनका राज्य वम्र्मराज्य भी कहा जाता है। वम्र्मराज्य पर बाद में नागौद के परिहारों ने अपना शासन जमा लिया था ।
पाँचवी शताब्दी के अंत तक हूण शासकों द्वारा बुंदेलखंड का शासन करना इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। हूणों का प्रमुख तोरमाण था जिसने गुप्तों को पराजित करके पूर्वी मालवा तक अपना साम्राज्य बढ़ाया था । एरण के वराहमूर्ति शिलालेख में तोरमण के ऐश्वर्य की चर्चा है। इतिहासकारों के अनुसार भानुगुप्त और तोरमाण हर्षवर्धन के पूर्व का समय अंधकारमय है। चीनी यात्री ह्यानसांग के यात्रा विवरण में बुंदेलखंड का शासन ब्राह्मण राजा के द्वारा चलाया जाना बताया गया है। बुंदेलखंड को ह्मष साम्राजय् के बाहर माना गया है। कालांतर में ब्राह्मण राजा ने स्वयं हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हर्ष के उपरांत अराजकता की स्थिती में बुंदेलखंड धार नरेश भोज के अधिकार में आया । इसके बाद सूरजपाल कछवाहा, तेजकर्ण, वज्रदामा, कीर्तिराज आदि शासक हुए पर इन्होनें कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं दिया।
सन ६४७ से १२०० ई० के आसपास तक कन्नौज में अनेक शासक हुए, इनमें यशोवम्र्मन, आयुध, राजकुल, प्रतिहार, गाहड़वाल, शाकम्भरी के चौहान (अजयराज, विग्रहराज चतुर्थ वांसलदेव और पृथ्वीराज तृतीय प्रमुख हैं। इसी समय देश पर मुस्लिम आक्रमण भी हुए। मध्यकाल तक आसाम में भास्कर वर्मन, बंगाल में पालराजकुल का प्रभाव बढ़ा तो त्रिपुरी में कलचुरि जेजाकमुक्ति (बुंदेलखंड) में चन्देल, मालवा में परमाल तथा आन्हिवाड़ में चालुक्य राजकुलों की शक्ति में संवर्द्धन हुआ। बुंदेलखंड में कलचुरियों और चन्देलों का प्रभाव दीर्घकाल तक रहा।
कलचुरियों की दो शाखायें हैं -
रत्नपुर के कलचुरि और त्रिपुरी के कलचुरि। बुंदेलखंड में त्रिपुरी के कलचुरियों का महत्व है। यह वंश पुराणों में प्रसिद्ध हैध्यवंशी कार्तवीर्य अर्जुन की परंपरा में माना जाता है। इसके संस्थापक महाराज कोक्कल ने (जबलपुर के पास) त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया अतएव यह वंश त्रिपुरी के कलचुरियों के नाम से विख्यात है। प्राचीन काल में नर्मदा के शीर्ष स्थानीय प्रदेश से महानदी के प्रदेश का विस्तृत भूभाग चेदि जनपद के नाम से प्रसिद्ध था। मध्यकाल में इसे "डहाल' कहा जाने लगा। कोवकल बड़ी सूझबूझ एवं दूरदृष्टि वाला उत्साही व्यक्ति था ; उसने उत्तर के चंदेलों की बढ़ती हुई शक्ति से लाभ उठाने के लिए चन्देल कुमारी नट्टा देवी से विवाह किया।
प्रतापी कोवकलदेव के पुत्र मुग्धतुंग और केयूरवंर्ष ने अभूतपूर्व उन्नति की थी। बिलहरी के शिलालेख के अनुसाल केयूरवर्ष ने गौड़, कर्णाटलाट आदि देशों की स्रियों से राजमहल को सुशोभित किया था और उससे कैलास से सेतुबंध तक के शत्रु भयाक्रान्त थे। केयूरवर्ष के प्रताप का वर्णन राजशेखर ने विद्शाल मंजिका नाटक में भी किया है।
कलचुरियों ने लक्षमणदेव, गंगेयदेव, कर्ण, गयाकर्ण, नरसिंह, जयसिंह आदि का शासन काल समृद्धिपूर्ण माना जाता है। इन्होंने ५०० वर्ष तक शासन किया जिसे सन १२०० के आसपास देवगढ़ के राजा ने समाप्त कर दिया और फिर चन्देलों के अधीन आया। हर्षवर्धन के समय चन्देल राज्य एक छोटी सी ईकाई थी परन्तु उसके बाद यह विस्तार पाकर दसवीं शताब्दी तक एक शक्तिशाली राज्य बन गया।
महोबा चन्देलों का केन्द्र था। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद गहरवारों ने इस पर अधिकार कर लिया था। गहरवारों को पराजित करने वाले परिहार थे। स्मिथ और कीनधम ने इस जनश्रुति का समर्थन अपने ग्रंथों में किया है। केशवचन्द्र मिश्र का कथन है कि चन्द्रात्रेय से नन्नुक के राज्यकाल तक का (सन ७४० से ८३१ तक) १० वर्ष तक का समय चन्देलों के उदय का काल है। इस वंश के प्रमुख शासक मुनि चन्द्रात्रेय, नृपति भूभुजाम और नन्नुक हैं। धंग के खजुराहो शिलालेख से इसका प्रमाण मिलता है। इसी संदर्भ मे कोक्कल के लेख और ताम्रपत्रों से प्रभूत सामग्री मिलती है।
चन्देलों की उत्पति विवादास्पद है। डॉ स्मिथ, कीनंधम, वैद्य और हेमचंद्र राय के मतों में बहुत भिन्नता है। किवदन्ती के अनुसाल हेमावती के पुत्र का चन्द्रमा से उत्पन्न होना चन्देल कहलाया है। जन्म सम्बन्धी वृतांत में चन्देलों का कलिं में रहना, प्रथम प्रतापी शासक बनना भी शामिल हैं। महाकवि चन्द ने भी चन्देलों के राजवंशों की विस्तृत सूची दी है। चन्देलों का आदि पुरुष नन्नुक माना जाता है। इसे प्रारंभ मे राजा न मानकर नागभ द्वितीय (प्रतिहार शासक) के संरक्षण में विकसित होने वाला शासक बताया गया है। ऐसा साक्ष्य धंग के खजुराहे - अभिलेख में भी मिला है।
चन्देलों की अपनी परंपरा है। नन्नुक आदि शासक हैं। इसके बाद वाक्यपति का नाम आता है। वाक्यपति के दो पुत्र हुए जयशक्ति और विजयशक्ति। जयशक्ति को वाक्यपति के बाद सिंहासन में बैठाया गया और इसके नाम से ही बुंदेलखंड क्षेत्र का नाम "जेजाक-मुक्ति' पड़ा। मदनपुर के शिलालेख और अलबेरुनी के भारत संबंधी यात्रा विवरण में इस तथ्य को समर्थन मिलता है। अलबरुनी ने जेजाक मुक्ति के स्थान पर "जेजाहुति' शब्द का प्रयोग किया है।
जयशक्ति के बाद विजयशक्ति गद्दी पर बैठा। इसने कोई महत्वपूर्ण कार्य नही किए परन्तु उसके पुत्र राहील की ख्याति अपने पराक्रम के लिए विशेष है। केशव चन्द्र मिश्र ने लिखा है कि "यदि चन्देल शासक राहील के कार्यों का सिंहावलोकन किया जाये तो ज्ञात होगा कि ९०० ई० से ९१५ ई० तक के १५ वर्षों के शासन काल मे उसने सैन्यबल संगठित किया, उसे महत्वाशाली बनाया और अजयगढ़ की विजय करके ऐतिहासिक सैनिक केन्द्र स्थापित किया। कलचुरि से वैवाहिक संबंध जोड़कर उसने प्रभावशाली कार्य किया।' राहिल के बाद चन्देल राज्य की स्वतंत्र सत्ता का और विकास होता है। चन्देलों ने सोलहवीं शताब्दी तक शासन किया। शासकों में प्रमुख इस प्रकार हैं -
- नन्नुक सन् ८३१ ई०
- वाक्पति सन् ८४५ ई०
- यशोवम्र्मन ९३० ई०
- धंग सन् ९५० ई०
- गंड सन् १००० ई०
- विद्याधर १०२५ ई०
- विजयपाल १०४० ई०
- देववर्मा १०५५ ई०
- कीर्तिवर्मा सन् १०६० ई०
- सल्लक्षण वम्र्मन ११०० ई०
- जयवर्मन १११० ई०
- पृथ्वीवर्मन ११२०
- मदनवर्मन ११२९ ई०
- परमर्दि ११६५ ई०
- त्रैलोक्यवर्मन १२०३ ई०
- वीरवम्र्मन १२४५ ई०
- भोजवर्मा १२८२ ई०
- वीरवर्मा द्वितीय १३०० ई०
- कीर्तिराय १५२० ई०
- रामचन्द्र १५६९ ई०
चन्देलों के साथ दुर्गावती का भी नाम लिया जाता है।
चन्देल काल में बुंदेलखंड में मूर्तिकला, वास्तुकला तथा अन्य कलाओं का विशेष विकास हुआ। "आल्हा' के रचयिता जगीनक माने जाते हैं। ये चन्देलों के सैनिक सलाहकार भी थे। पृथ्वीराज से चन्देलों से संबंध भी आल्हा में दर्शाये गये हैं। सन् ११८२-८३ में चौहानों ने चन्देलों को सिरसागढ़ में पराजित किया था और कलिन् का किला लूटा था।
चन्देलों की कीर्ति के अनेक शिलालेख हैं। देवगढ़ के शिलालेख में चन्देल वैभव इस प्रकार दर्शाया है - "$ नम: शिवाय। चान्देल वंश कुमुदेन्दु विशाल कीर्ति: ख्यातो बभूव नृप संघनताहिन पद्म:।' चन्देलों के प्रमुख स्थान खजुराहो, अजयगढ़, कलिंजर, महोबा, दुधही, चांदपुर आदि हैं।
चन्देल अभिलेख से स्पष्ट है कि परमार नरेश भोज के समय मे विदेशी आक्रमणकारियों का ताँता लग गया था । कलिं को लूटने के लिए मुहम्मद कासिम, महमूद गज़नवी, शहाबुद्दीन गौरी आदि आर्य और विपुलधन अपने साथ ले गये। कुतुबुद्दीनएबक मुहम्मद गौरी के द्वारा यहां का शासक बनाया गया था उसके मरने के बाद स्वतंत्र हुआ और चंगेजखाँ के आक्रमण तक शासक बना रहा।
बुंदेलखंड में कलिं का किला सभी बादशाहों को आकर्षण का केन्द्र रहा और इसे प्राप्त करने के सभी ने प्रयत्न किया। हिन्दु और मुसलमान राजाओं में इसके निमित्त अनेक लड़ाईयां हुईं। खिलजी वंश का शासन संवत् १३७७ तक माना गया है। अलाउद्दीन खिलजी को उसके मंत्री मलिक काफूर ने मारा, मुबारक के बनने पर खुसरो ने उसे समाप्त किया। कलिंजर और अजयगढ़ चन्देलों के हाथ में ही रहे। इसी समय नरसिंहराय ने ग्वालियर पर अपना अधिकार किया। बाद में य तोमरों के हाथ में चला गया। मानसी तोमर ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा माने गए हैं।
बुंदेलखंड के अधिकांश राजाओं ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी प्रारंभ कर दी थी फिर वे किसी न किसी रुप में दिल्ली के तख्त से जुड़े रहते थे। बाबर के बाद हुमायूँ, अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के शासन स्मरणीय है।
बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबन्धित हैं। अक्ष्वाकु के बाद रामचन्द्र के पुत्र "लव' से उनके वंशजो की परंपरा आगे बढ़ाई गई है और इसी में काशी के गहरवार शाखा के कर्त्तृराज को जोड़ा गया है। लव से कर्त्तृराज तक के उत्तराधिकारियों में गगनसेन, कनकसेन, प्रद्युम्न आदि के नाम ही महत्वपूर्ण हैं।
कर्त्तृराज का गहरवार होना किसी घटना के आधार पर हैं जिसमें काशी मे ऊपर ग्रहों की बुरी दशा के निवारणार्थ उसके प्रयत्नों में "ग्रहनिवार' संज्ञा से वह पुकारा जाने लगा था। कालांतर "ग्रहनिवार' गहरवार बन गया।
बनारस के राजाओं की अनेक समय तक सूर्यवंशी सूर्य-कुलावंतस काशीश्वर पुकारा जाता रहा है। इनकी परंपरा इस प्रकार है - कर्त्तृराज, महिराज, मूर्धराज, उदयराज, गरुड़सेन, समरसेन, आनंदसेन, करनसेन, कुमारसेन, मोहनसेन, राजसेन, काशीराज, श्यामदेव, प्रह्मलाददेव, हम्मीरदेव, आसकरन, अभयकरन, जैतकरन, सोहनपाल और करनपाल। करनपाल के तीन पुत्र थे - वीर, हेमकरण और अरिब्रह्म। करनपाल ने हेमकरन को अपने सामने ही गद्दी पर बैठाया था। इसे करनपाल की मृत्यु पर शेष दो भाईयों ने पदच्युत कर देश निकाला दे दिया था।
अपने भाइयों से त्रस्त होकर हेमकरन ने राजपुरोहित गजाधर से परामर्श लिया। उसने विन्धयवासिनी देवी की पूजा के लिए प्रेरित किया। मिर्जापुर में विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा में चार नरबलियाँ दी गई, देवी प्रसन्न हुई और हेमकरन को वरदान दिया परंतु हेमकरन के भाईयों का अत्याचार हेमकरन के लिए अब भी कम नही हुआ। कालांतर में उसने एक और नरबलि देकर देवी को प्रसन्न किया। देवी नें पाँचों नरबलियों के कारण उसे पंचम की संज्ञा दी। इसके बाद वह विन्ध्यवासिनी का परम भक्त बन गया। जनसमाज में वह "पंचम विन्ध्येला' कहलाया। देवी द्वारा दिये गए वरदानों को ओरछा राज्य के इतिहास में विशेष महत्व दिया गया है।
एक अन्य कथा के अनुसार हेमकरन ने देवी के समक्ष अपनी गर्दन पर जब तलवार रखी और स्वयं की बलि देनी चाही तो देवी ने उसे रोक दिया परंतु तलवार की धार से हेमकरन के रक्त की पांच बूंदें गिर गई थीं इन्हीं के कारण हेमकरन का नाम पंचम बुंदेला पड़ा था। ओरथा दरबार के पत्र में अभी भी पूर्ववर्ती विरुद्ध के प्रमाण मिलते हैं जैसे - श्री सूर्यकुलावतन्स काशीश्वरपंचम ग्रहनिवार विन्ध्यलखण्डमण्लाहीश्वर श्री महाराजाधिराज ओरछा नरेश। चूंकि हेमकरन को विन्ध्यवासिनी देवी का वरदान रविवार को मिला था, ओरछा में आज भी पवरात्र महोत्सव में इस दिन नगाड़े बनाये जाते हैं। मिर्जापुर स्थित गौरा भी हेमकरन के बाद गहरवारपुरा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके बाद का चक्र बड़ी तेजी से घूमा और वीरभद्र ने गदौरिया राजपूतों मे अँटेर छीन लिया और महोनी को अपनी राजधानी बनाया। गढ़कुण्डार इसके बाद बुंदेलों की राजधानी बनी। वीरभद्र के पाँच विवाह और पाँच पुत्र प्रसिद्ध हैं - इनमें रणधीर द्वितीय रानी से, कर्णपाल तृतीय रानी से, हीराशी, हंसराज और कल्याणसिंह पँचम रानी से थे। वीरभद्र के बाद कर्णपाल (१०८७ ई० से १११२ ई०) गद्दी पर बैठा। उसकी चार पत्नियाँ थीं। प्रथम के कन्नारशाह, उदयशाह और जामशाह पैदा हुए। द्वितीय पत्नी से शौनक देव तथा नन्नुकदेव तथा चतुर्थ पत्नी से वीरसिंहदेव का जन्म हुआ।
कन्नारशाह (१११२ ई० - ११३० ई०), शौनकदेव (११३० ई०-११५२ ई०), नन्नुकदेव (११५२ई०-११६९ ई०) ओरछा की गद्दी पर क्रम से बैठे। इसके बाद वीरसिंह के पुत्र मोहनपति (११६९ ई०-११९७ ई०), अभयभूपति (११६९ ई०-१२१५ ई०) गद्दी पर आये। अर्जुनपाल अभयभूपति का पुत्र था। ये १२१५ ई० से १२३१ ई० तक गद्दी पर रहा। उसने तीन विवाह किए। दूसरी रानी से सोहनपाल का जन्म हुआ। यह ओरछा बसाने में विशेष सहायक माना जाता है।
रुद्रप्रताप के साथ ही ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है। वह सिकन्दर और इब्राहिम लोधी दोनों से लड़ा था। ओरछा की स्थापना मन १५३० में हुई थी। रुद्रप्रताप बड़ नीतिज्ञ था, ग्वालियर के तोमर नरेशों से उसने मैत्री संधी की। उसके मृत्यु के बाद भारतीचन्द्र (१५३१ ई०-१५५४ई०) गद्दी पर बैठा। हुमायूँ को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन कथियाया था तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा। कलिं का किला कीर्तिसिंह चन्देल के अधिकार में था। शेरशाह ने इस पर किया तो भारतीचन्द ने कीर्तिसिंह की सहायता ली। शेरशाह युद्ध में मारा गया और उसके पुत्र सलीमशाह को दिल्ली जाना पड़ा।
भारतीचन्द के उपरांत मधुकरशाह (१५५४ ई०-१५९२ ई०) गद्दी पर बैठा। इसके बाद समय में स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना हुई। अकबर के बुलाने पर जब वे दरबार में नही पहुँचा तो सादिख खाँ को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया। युद्ध में मधुकरशाह हार गए। मधुकरशाह के आठ पुत्र थे, उनमें सबसे ज्येष्ठ रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया। राज्य का प्रबन्ध उनके छोटे भाई इन्द्रजीक किया करते थे। केशवदास नामक प्रसिद्ध कवि इन्हीं के दरबार में थे।
इन्द्रजीत का भाई वीरसिंह देव (जिसे मुसलमान लेखकों ने नाहरसिंह लिखा है) सदैव मुसलमानों का विरोध किया करता था) उसे कई बार दबाने की चेष्टा की गई पर असफर ही रही। अबुलफज़ल को मारने में वीरसिंहदेव ने सलीम का पूरा सहयोग किया था, इसलिए वह सलीम के शासक बनते ही बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण शासक बना। जहाँगीर ने इसकी चर्चा अपनी डायरी में की है।
वीरसिंह देव (१६०५ ई० - १६२७ ई०) के शासनकाल में ओरछा में जहाँगीर महल तथा अन्य महत्वपूर्ण मंदिर बने थे। जुझारसिंह ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हें गद्दी दी गई और षेष ११ भाइयों को जागीरें दी गई। सन् १६३३ ई० में जुझारसिंह ने गोड़ राजा प्रेमशाह पर आक्रमण करके चौरागढ़ जीता परंतु शाहजहाँ नें प्रत्याक्रमण किया और ओरछा खो बैठे। उन्हें दक्षिण की ओर भागना पड़ा। उनके कुमारों को मुसलमान बनाया गया तथा वे कहीं पर दक्षिण में ही मारे गये। वीरसिंह के बाद ओरछा के शासकों में देवीसिंह और पहाड़सिहं का नाम लिया जाता है परंतु ये अधिक समय तक राज न कर सके।
वीरसिंह के उपरांत चम्पतराय प्रताप का इतिहास प्रसिद्ध है। औरंगज़ेब की सहायता करने (दारा के विरुद्ध) पर उन्हें ओरछा से जमुना तक का प्रदेश जागीर में दिया गया था। दिल्ली दरबार के उमराव होते हुए भी चम्पतराय ने बुंदेलखंड को स्वाधीन करने का प्रयत्न किया और वे औरंगज़ेब से ही भीड़ गए। सन १६६४ मे चम्पतराय ने आत्महत्या कर ली। ओरछा दरबार का प्रभाव यहाँ से शून्य हो जाता है।
पन्ना दरबार इसी के बाद छत्रसाल के नेतृत्व में उन्नति करता है। ओरछा गज़ेटियर के अनुसार मुगल शासकों नें चम्पतराय के परिवार को गद्दी न दी और जुझारसिंह के भाई पहाड़सिंह को शासक नियुक्त किया। ओरछा के परवर्ती शासकों ने सुजानसिंह (१६५३ ई०-१६७२ ई०), इन्द्रमीण (१६७२ ई०-१६७५ ई०), यशवंत सिंह (१६७५ ई०-१६८४ ई०), भगवंत सिंह (१६८४ ई० - १६८९ ई०), उद्दोतसिंह, दत्तक पुत्र (१६८९ ई०-१७३६ ई०), पृथ्वी सिंह (१७३६ ई०-१७५२ ई०), सावंत सिंह (१७५२ ई०-१७६५ ई०) तथा हतेसिंह विक्रमाजीत, धरमपाल, तेजसिंह, हमीरीसिंह, प्रतापसिंह के नाम प्रमुख हैं।
छत्रसाल ने बुंदेलखंड की स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में अथक परिश्रम किया। औरंगज़ेब ने इन्हें भी दबाने की कोशिश की पर सफल न हुए। छत्रसाल ने कलिं को भी अपने अधिकार में किया। सन् १७०७ ई० सें औरंगज़ेब के मरने के बाद बहादुरगढ़ गद्दी पर बैठा। छत्रसाल से इसकी खूब बनी। इस समय मराठों का भी ज़ोर बढ़ गया था।
छत्रसाल स्वयं कवि थे। छत्तरपुर इन्हीं ने बसाया था। कलाप्रेमी और भक्त के रुप में भी इनकी ख्याती थी। धुवेला-महल इनकी भवन निर्माण-कला की स्मृति दिलाता है। बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल की मृत्यु के बाद बुंदेलखंड राज्य भागों में बँट गया। एक भाग हिरदेशाह, दूसरा जगतराय और तीसरा पेशवा को मिला। छत्रसाल की मृत्यु १३ मई सन् १७३१ में हुई थी।
(क) प्रथम हिस्से में हिरदेशाह को पन्ना, मऊ, गढ़ाकोटा, कलिंजर, शाहगढ़ और उसके आसपास के इलाके मिले।
(ख) द्वितीय हिस्से में जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, जरखारी, बिजावर, सरोला, भूरागढ़ और बाँदा मिला।
(ग) बाजीराव को तीसरे हिस्से में कलपी, हटा, हृदयनगर, जालौन, गुरसाय, झाँसी, गुना, गढ़कोटा और सागर इत्यादि मिला।
अठारवीं शताब्दी में हिन्दुपत के वंशज सोनेशाह ने छत्तरपुर की स्थापना की। कृष्णकवि (पन्ना दरबार के राजकवि) ने इसे छत्रसाल द्वारा बसाया माना है। जबकि छत्तरपुर गजेटियर में इसे सोनोशाह का नाम ही दिया है। सोनेशाह के बाद छत्तरपुर राज्य में प्रतापसिंह, जगतराज और विश्वनाथसिंह आदि राजाओं ने शासन किया। सोनेशाह के समय में छत्तरपुर में अनेक महलों, तालाबों, मन्दिरों का निर्माण करवाया।
८. मराठों का शासनः
छत्रसाल के समय से ही मराठों का शासन बुंदेलखंड पर प्रारंभ हो गया था। उस समय ओरछा का शासक भी मराठों को चौथ देता था। दिल्ली के मुसलमान शासकों द्वारा अराजकता फैलाने के कारण उत्तर भारत में धीमे-धीमे अंग्रेजी शासन फैलता जा रहा था। सन् १७५९ में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में गोविन्दराव पतं मारे गए।
बुंदेलखंड में अंग्रेजों का आगमन हानिकारक सिद्ध हुआ। कर्नल वेलेजली ने सन् १७७८ में कलपी पर आक्रमण किया और मराठों को हराया। कालांतर में नाना फड़नवीस की सलाह मे माधव नारायण को पेशवा बनाया गया तथा मराठों और अंग्रेजों में संधि हो गई।
हिम्मत बहादुर की सहायता से अंग्रेजों नें बुंदेलखंड पर कब्जा किया। सन् १८१८ ई० तक बुंदेलखंड के अधिकांश भाग अंग्रेजों के अधीन हो गए।
सन् १८४७ का वर्ष अंग्रेजों के लिए इसीलिए उत्तम सिद्ध हुआ था क्योंकि महाराज रणजीत सिंह का पुत्र उनके बाद पंजाब का राजा बनाया गया। लार्ड डलहौज़ी इस समय गवर्नर जनरल थे और उन्होंन दिलीपसिंह को अयोग्य शासक बताकर पंजाब पर कब्जा जमा लिया। शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को पुर्तगालियों से मिले रहने का आरोप लगा कर सतारा में कैद किया और दक्षिण का बाग अपने अधीन किया। झाँसी में गंगाधरराव की मृत्यु के बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु इसी समय १८५७ के विद्रोह की घटना घटी। बरहमपुर, मेरठ, दिल्ली, मुर्शीदाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, झाँसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए। झाँसी पर विद्रोहियों ने किले पर अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई ने किसी प्रकार युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई कहलाई।
सागर की ४२ न० पलटन ने अंग्रेजी हुकूमत मानना अस्वीकार कर दिया। बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने अंग्रेजी अधिकार के परगनों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया। खुरई का अहमदबख्श तहसीलदार भी मर्दनसिंह मे मिल गया। ललितपुर, चंदेरी पर दोनों ने कब्जा किया। शाहगढ़ में बख्तवली ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित की। सागर की ३१ नं० पलटन चूंकि बागी न थी इसीलिए उसकी सहायता से मर्दनसिंह की मालथौन में डटी हुई सेना को हटाया गया, फिर ४२ नं० पलटन से युद्ध हुआ।
बख्तवली नें ३१ नं० पलटन ने शेखरमजान से मेल कर लिया विद्रोह की लहर, सागर, दमोह, जबलपुर आदि स्थानों में फैल गई। इस समय तक पन्ना के राजा की स्थिती मजबूत थी, अंग्रेजों ने उनसे सहायता माँगी। राजा ने तुरन्त सेना पहुँचाई और जबलपुर की ५२ नं० की पलटन को बुरी तरह दबा दिया गया। शनै: शनै: बख्तवली और मर्दनसिंह को नरहट की घाटी में सर हारोज ने पराजित किया। अंग्रेजी सेना झाँसी की ओर बढ़ती गई। झाँसी, कालपी में अंग्रेजों को डटकर मुकाबला करना पड़ा। रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव (पुत्र) को अपनी पीठ पर बाँधकर मर्दाने वेश में कालपी की ओर भाग गयी। इसके बाद झाँसी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
कालपी में एक बार फिर बख्तवली और मर्दनसिंह ने रानी के साथ मिलकर सर ह्यूरोज से युद्ध किया। यहाँ भी उसे पराजय हाथ लगी। वह ग्वालियर पहुँची और सिंधिया को हराकर वहाँ भी शासक बन बैठी पर सर ह्यूरोज ने ग्वालियर पर अचानक हमला किया। राव साहब पेशवा, तात्या टोपे का पराभव, रानी की मृत्यु आदि ने पूर्णत: विद्रोह की अग्नि को ठंडा कर दिया। बुंदेलखंड के सारे प्रदेश इस प्रकार अंग्रेजी राज्य में समा गए।
बुंदेलखंड का राजविद्रोह वास्तव में जनता का विद्रोह न होकर सामन्तों और सेना का विद्रोह था इसी पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक और धार्मिक भावना के साथ साथ स्वामिभक्ति का पुट विशेष है। देश की सीमा वस्तुत: सामन्तो की जागीरों अथवा राज्यों की सीमायें थीं। सामन्तों का धर्म जनता का धर्म था अत: विद्रोहियों द्वारा देश पर कब्जा और धर्म का नाश असह्य था जिसे गोली में लगी चर्बी के बहाने हिन्दु और मुसलमानों दोनो ने व्यक्ति किया।
कल्याण सिंह कुड़रा ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीर गाथा करते हुए लिखा है - चलत तमंचा तेग किर्च कराल जहां गुरज गुमानी गिरै गाज के समान।
तहाँ एकै बिन मध्यै एकै ताके सामरथ्यै, एकै डोलै बिन हथ्थै रन माचौ घमासान।।
जहाँ एकै एक मारैं एकै भुव में चिकारै, एकै सुर पुर सिधारैं सूर छोड़ छोड़ प्रान।
तहाँ बाई ने सवाई अंगरेज सो भंजाई, तहाँ रानी मरदानी झुकझारी किरवान।।
कवि ने रानी की वीरता का परिचय देते हुए कहा है कि रानी किस प्रकार वीरतापूर्वक शत्रु का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त होती है।
बुंदेलखडं की सीमायें छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं, इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड, लहार और मोण्डेर के जिले और परगने शामिल थे। इस पूर भूभाग का क्षेत्रफल लगभग ३००० वर्गमील था। अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे छोटे राज्य थे। बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् १८२० में हुआ। सन् १८३५ में जालौन, हमीरपुर, बाँदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर के जिले को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया, जिसकी देख रेख आगरा से होती थी। सन् १८३९ में सागर और दामोह जिले को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई जिसकी देखरेख झाँसी से होती थी। कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झाँसी से नौगाँव आ गया। सन् १८४२ में सागर, दामोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ आन्दोलन हुआ परंतु फूट डालने की नीति के द्वारा शान्ति स्थापित की गई। इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है। अनेक शहीदों ने समय समय पर स्वतंत्रता के आन्दोलन छेड़े परंतु गाँदी जी जैसे नेता के आने से पहले कुछ ठोस उपलब्धि संभव न हुई।
बुंदेलखंड का इतिहास आदि से अंत तक विविधताओं से भरा है परंतु सांस्कृतिक और धार्मिक एकता की यहाँ एक स्वस्थ परंपरा है।
bundel khand ka itihas dene ka swagat.badhaee.
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और शुभकामनायें
ReplyDeleteकृपया दूसरे ब्लॉगों को भी पढें और उनका उत्साहवर्धन
करें
chhota likho. narayan narayan
ReplyDelete