Saturday, November 7, 2009

आल्हाखंड और अल्हैत


जगनिक, जगनायक, जगतसिंह की जन्मभूमि सकोहा --जगनेर-- तहसील हटा --दमोह-- में मानी जाती है। इनका काव्य काल ११६५ ई: से १२०३ ई. है। जगनिक भाट चन्देल नरेश परिमर्दि --परमाल-- के आश्रित थे। इनके दो ग्रन्थ "आल्हाखण्ड तथा परमाल रासो' लोक भाषा के प्रथम मौखिक काव्य माने जाते हैं। इनका लिखित स्वरुप परिमार्जित होता गया। इसकी प्राचीनतम लिखित प्रति फर्रुखाबाद के कलेक्टर सर चाल्र्स इलियट को सन् १८६५ ई. में प्राप्त हुई। इसमें २३ खण्ड तथा ५२ युद्धों का वर्णन है। आल्हा का पाठ करने वाले अल्हैत कहलाते हैं। मदनपुर --झांसी-- के मंदिर में प्राप्त शिलालेख से पता चलता है कि वीर आल्हा सं. १२३५ --११७८ ई.-- में विद्यमान थे। बुन्देलखण्ड में आल्हाखण्ड का पाठ प्रायः सावन के महीने में गांव के चौपालों में होता है जब बादल घिरे रहते हैं और वर्षा होती रहती है।
आल्हा खण्ड की रचना सन् ११४० ई. मानी जाती है। इस ग्रन्थ से प्रेरणा पाकर लगातार आठ सौ वर्षों तक आल्हा पर आधारित ग्रन्थों की रचना होती रही जिनमें से कतिपय ग्रन्थ निम्नांकित हैं।
१. कजरियन को राछरो - १३वीं १४वीं शती
२. महोबा रासो - १५२६ ई.
३. आल्हा राईसो - १७वीं शती
४. वीर विलास --ज्ञानी जू राइसो-- - १७४१ ई.
५. पृथ्वीराज दरेरो - १८वीं शती
६. आल्हा --शिवदयाल "शिबू दा' कमरियाकृत--
७. पृथ्वीराज राईसो तिलक --दिशाराम भट्ट-- १९१९ ई.
८. आल्हा रासौ --लाला जानकीदास, टीकमगढ़ से प्राप्त-- - सं. १९१८ ई.

आल्हा गायक पीरखां --मूसानगर कानपुर-- कालीसिंह, तांती सिंह ने आल्हा गायकी का विकास किया। बरेला --हमीरपुर-- के गायक कानपुर के रामखिलावन मिश्र, उन्नाव के लल्लू राम बाजपेयी, हमीरपुर के काशीराम प्रसिद्ध आल्हा गायक हैं। श्री बच्चा सिंह द्वारा महोबा में आल्हा गायन प्रशिक्षण विद्यालय "जगनिक शोध संस्थान' द्वारा स्थापित है। उन्नाव के लालू बाजपेयी ने गायकी को प्रदर्शनकारी कला बनाया है।

म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद भोपाल ने तीन वर्ष में आल्हा खण्ड के पैंतिस पाठों का दस्तावेजीकरण किया है। सन् १९९३ में आल्हागायकी की चारशैली - महोबा, दतिया, सागर और नरसिंहपुर गायकों की प्रचलित पाई गई। इनके द्वारा गाये १४ युद्धों का संकलन तैयार किया गया। दतिया गायकी के प्रणेता स्व. श्री गंगोले थे। उन्होंने गायकी को शास्रीय संगत का पुट दिया। गायकी की शैली के दूसरे चरण में २१ ऐतिहासिक लड़ाइर्यों का दस्तावेजीकरण हो रहा है। भोजपुर --बिहार-- क्षेत्र में आल्हा अत्यन्त लोकप्रिय वीर रस प्रधान लोक गाथा है। छिन्वाड़ा म.प्र. में आल्हा-ऊदल माहिल आदि की सवारियां घोड़ों पर कजलियों के मेले के अवसर पर निकलती है तथा आल्हा का गायन सामूहिक रुप से होता है।
अ. चढ़ी पालकी मल्हना रानी, जगनेरी में पहुँची जाये
गओ हरकारा जगनायक पै, जगनिक सो कही सुनाय
मल्हना आई दरवाजे पै जल्दी चलो हमारे साथ
जगनिक आये और द्वार पै मल्हना छाती लियो लगाय
रो रो मल्हना बात सुनाई हम पै चढ़ै पिथौरा राय
नगर महोबा उन धिरवा लओ फाटक बन्द दये करवाय
विपत्ति हमारी मेटन के हित तुम आल्हा को ल्यावो मनाय
मल्हना बोली कातर हुई के, जगनिक संकट होय सहाय
धन्य जनम है वा क्षत्री को परहित सीस देव कटवाय
जग में सुख के साथी सब ही दुख में बिरलेहोय सहाय
पवन बछैरा हरनागर दो तो हम आल्हा पै चलि जाय
मल्हना जगनिक के संग लौटी ब्रह्मानन्द को लियो बुलाय
जगनिक साजै घोड़ा साजो आरति करी मल्हन के नार
लाज काज सब हाथ तुम्हारे नैइया खेय लगइयो पार
फॉदि बछेड़ा पर चढ़ बैठे मनियादेव के चरण मनाय
सबै देवतन को सुमिरनकर जगनिक कूच कियो करवाय

ब. बारह बरस लौ कुकूर जीवै और तेरा लै जियै सियार।
बरिस अठारह क्षत्री जीवै, आगे जीवन को धिक्कार।

१. "आल्हा वीरत्व की मनोरम गाथा है जिसमें उत्साह गौरव और मर्यादा की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। आल्हा मूलतः सामान्य लोगों के शौर्य, आत्मत्याग, उत्सर्ग व पौरुष का अद्भुत चित्रण करता है। इन युद्धों में पांच नेगी - ब्राह्मण, बारी, नाई, धोबी और माली शौर्य दिखाते हैं। आल्हा प्रेम सौहार्द्र, एकात्म और सद्भावना का संदेश देता है। साम्प्रदायी सौहार्द्र का अनुपम उदाहरण है। आल्हा की सम्प्रेषणीयता का रहस्य इसकी जनभाषा में निहित है। इसी कारण शताब्दियों से लोक कंठ और लोक स्मृतियों में अक्षुण्ण है उसका कलेवर और कथा बदलती रही फिर भी उसकी लोकप्रियता रामचरित मानस से किसी प्रकार कम नहीं है।' इसमें निम्नवर्ग का उच्च वर्ग के प्रति विद्रोही चेतना का स्वर गुंजित होता है।
- गोविन्दरजनीश

२. आल्हाखण्ड औरतों के लिये पुरुषों द्वारा लड़ी गयी लड़ाइयों का काव्य है।
३. हिन्दी लोकसाहित्य में रामचरित मानस के उपरान्त किसी अन्य काव्य को आल्हाखण्ड के समान लोकप्रियता प्राप्त नहीं है।
- पं. परमानन्द 

ईसुरी
हरताल ईसुरी का जन्म चैत्र शुक्ल १० सं. १८९८ वि. में ग्राम मेढ़की जिला झांसी में हुआ था। इनके पिता का नाम भोलेराम अरजरिया था। वे कारिन्दा स्वरुप चतुर्भुज जमींदार के पास कार्य करते थे। उन्हें बगौरा बहुत प्रिय था। उनका निधन अगहन शुक्ल ६ सं. १९६६ वि. --सन १९०९-- में हुआ था। ईसुरी स्वयं फाग रचते व गाते थे। सुन्दरियां एवं गंगिया --द्वय रंगरेजियन बहिने-- नाचती थी। फाग का नामी गवैया धीरे पंडा था।
ईसुरी भारतेन्दु युग के लोकप्रिय कवि तथा पं. गंगाधर व्यास के समकालीन थे। ग्राम्य संस्कृति एवं सौन्दर्य का वास्तविक चित्रण उनकी चौकड़ियों में प्रतिबिम्बित है जो नरेन्द्र नामक छन्दों में लिखे गये हैं। रजऊ उनकी काल्पनिक प्रेमिका-सामान्य सजनी का प्रतीक है। वे प्रेम के अप्रतिभ कलाकार हैं। पं. गौरी शंकर द्विवेदी ने उनकी फागों का प्रथम संकलन तैयार किया था। पेकिंग --चीन-- विश्वविद्यालय में ईसुरी पर शोध कार्य --निर्देशक डा. ओ.पी. सिंघल, दिल्ली विश्वविद्यालय-- सम्पन्न हुआ है।

जो तुम छैल छला हो जाते परै उँगलियां राते
मौ पूछत गालन खो लगते कजरा देख दिखाते
घड़ी-घड़ी घूंघट खोलन में न सामने राते
मैं चाहत नख में बिन्दते हाथ जाइ खा लाते
ईश्वर दूर दरस के लाने ऐसे काय ललाते।।१।।
बखरी रइयत है भाड़े की, दई प्रिया प्यारे की।
कच्ची भीत उठी माटी की, छाई फूस चारे की।।२।।
आसौं दे खओ साल करौटा, करो खाओ सब खौटा
गोऊ पिसौ को गिरुवा गगओ महुअन लग गओ लौका
ककना, दौरी सब घर खाये रै गयो फखत अनोटा
कहति ईसुरी बाँधे लइयों जबर गाँठ कौ खोटा।।३।।
यारो इतना जस कर लीजो चित्त अंत न कीजो
गंगा जू लौ मरे ईसुरी दाग बगौरा दीजो।।४।।

रामायण तुलसी कही, तानसेन ज्यों राग
साई या कलिकाल में, कही ईसुरी फाग
फागैं ईसुरी जैसी नोनी, भई न आगे होनी
बानी ऐसा सब कोई समझे, बातें हियो गड़ोनी


रस भीगे
- श्री शोभाराम श्रीवास्त

डॉ. ब्रजभूषण सिंह "आदर्श' के अनुसार भारतेन्दु युग में लोककवि ईसुरी को बुन्देलखण्ड में जितनी ख्याति प्राप्त हुई उतनी अन्य किसी कवि को नहीं। श्री राजेन्द्र श्रीवास्तव ने बुन्देलखण्ड के फाग गीत शीर्षक लेख में लिखा "ग्राम्य संस्कृति का पूरा इतिहास केवल ईसुरी के फागों में मिलता है। प्रेम, श्रृंगार, करुणा, सहानुभूति, हृदय की कसक एवं मार्मिक अनुभूतियों का सजीव चित्रण ईसुरी की फागों में मिलता है। दिल को छूने और गुदगुदानें की अद्भुत क्षमता ईसुरी के फागों में है। नायिका के रुप वर्णन का रस फागों में सर्वत्र बिखरा है।

१. हमका बिसरत नई बिसारी, हेरन हंसी तुम्हारी।
जुवन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।
भौंअ कमान बना के ताने, न तिरीछी मारी।
ईसुर कांत हमारे को दौ, तनक हेर लौ प्यारी।

प्रिय मैं तुम्हारी मुस्कुराती हुई नजर भुलाना चाहते हुए भी नहीं भुला पा रहा हूँ। तुम्हारे विशाल पयोधर, मतवाली चाल और इकहरी पतली कमर है। तुम्हारी भौयें धनुष-बाण सी तनी हुई है जिनसे तुम तिरछी नजर मारती हो। हे प्रिय एक बार मेरी ओर भी इसी मुस्कुराती हुई न से देखो।

२. श्रीफल धरै फरै चोली में, मदरस चुअत लली को।
लेत पराग अधर के ऊपर, विकसों कमल कली को।
ईसुर कान्त बचायों रहियो छिये न छेल गली को।

यह तनी रुपी बगीचा प्रियतम के लिए है इसे सुहाग के अमृत से सींचा गया है। चोली में श्रीफल रुपी उरोज फले हैं जिनसे मदन रस टपकता है। कमल के फूल के समान अधरों से पराग लिया जाता है। ईसुरी कहते हैं इन उरोजों और अधरों को गली के रसिकों से बचाये रखना वे इन्हें छू न पायें।

३. जोवन मढियादार कलश भरे कारे बूंदा के।

नायिका के कुच छोटे मन्दिर के समान हैं। जिनमें कलश के रुप में काले रंग का बूंदा --बिन्दी का र्पुिंल्लग-- रखा हुआ है। --कवि का संकेत कुचाग्रों की ओर है।--

४. जोअना दैय राम ने तोरे, सब कोई आवत दौरे।
आय नहीं खॉड़ के धुल्ला पिये लेत न घोरे।
का भओ जात हाथ के फेरे, लेत नहीं कछु तोरे।
पंछी पिये घटे नहीं जाती, ईसुरी प्रेम हिलोरें।

ईश्वर ने तुम्हें उरोजों का उपहार दिया है। इन्हें के कारण लोग तुम्हारे पास दौड़े-दौड़े आते हैं। ये शक्कर के चने खिलौने नहीं हैं कि कोई इन्हें घोलकरपी जायेगा। इन पर जरा हाथ फेरने से क्या होगा, कोई इन्हें तोड़ तो नहीं लेगा, ईसुरी कहते हैं कि पक्षी के जल पीने से समुद्र की हिलोरें कम नहीं होती।

५. फूट जात नैचे की कलिया, टूट जाय दो कोने।
जौन वसत को गुदरी सौ, भौ ऊखौ उखरी होने।
अबई विशाल छाल हो जाने, जै गालन के कोने।
सबरे मन्त्र सासरे ईश्वर, जान न देत निरोने।

जब तक रजऊ --काल्पनिक नायिका-- ससुराल नहीं गई हे तभी तक उसके उरोज ठीक है। गौना होते ही उसकी नीचे की कलियाँ फूट जयेगी और कुचाग्र टूट जायेंगे। अंगूठी की मुंह जैसी वस्तु उखरी बन जायेगी। गाल फैलकर चौड़े हो जायेंगे। ईसुरी कहते हैं कि ससुराल जाने पर नायिका की कोई भी चीज साबित नहीं रहती है।

६. जुबना बीते जात लली के, पड़ गै हाथ छली के।
कसे रैत चोली के भीतर, जैसे फूल कली के।
कात ईसुरी मसके मोहन, जे है कोउ भली के।

नायिका के उरोज लटकने लगे हैं वे किसी छलिया के हाथ पड़ गये हैं, वह उन्हें मुहल्ला गली में चाहे जब मसकता रहता है, इससे वे नीचे को ढलने लगे। वह तो उन्हें अपनी चोली में कसकर छिपाये रहती है जिस प्रकार कली चटकने पर फूल खिलता है। उसी प्रकार चोली खोलने पर सारा यौवन उमड़ पड़ता है। ईसुरी कहते हैं कि ये उरोज इतने अच्दे हैं कि मोहन --रसिक-- के मसलने काबिल हैं, किसी छलिया के नहीं। ये किसी संभ्रात महिला के हैं।

७. रोजऊ हँस-हँस के मन भरती, कबहुँ न मन की करती।
देती नहीं दगाबाजी की, जेई बात अखरती।
हमसे सदा अदैनी राती औरउ रोज बितरती।
छिपा न राखी खुलकै कै दो, कौन बात खाँ डरतीं।
तुममें प्रान अटक रय ईसुर, आंखन से न टरतीं।

तुम रोज हंस-हंस के मेरा मन भरती हों पर मेरे मन की इच्छा कभी नहीं पूरी करती तुम मुझे देती नहीं हो तुम्हारी ये दगाबाजी हमेशा अखरती रहती है, तुम मुझसे रोज छरकती रहती हो और दूसरों को रोज बांटती हो तुम खुलकर मुझे बताओ कि तुम्हें काहे का डर है। ईसुरी कहते हैं कि मेरे प्रान तो तुम पर अटके हैं तुम मेरी आंखों से दूर नहीं होतीं।

८. हमसे चुमवा लो जा मुइया, फिर पछतैहो गुइयां।
प्यारे लगे कपोल गोल दो, परे हसत में कुइयां।
चार दिना की जा फुलवारी, हो न जाय उजरैयां।
ईसुर कहत कहुँ बैठी देखी है, सूखे आम पै टुइयां।

हे प्यारी, हमसे एक बार अपना मुंह चुमवा लो। तुम्हारे दोनो गोल-गोल गाल बड़े प्यारे लगते हैं जब तुम हंसती हो, तो इनमें गड़ढे पड़ जाते हैं इसे उजड़ने न दो। यौवन की ये फुलवारी चार दिन की है। ईसुरी कहते हैं कि तुमने कहीं सूखे आम पर मैना बैठी देखी है। यौवन की ये फुलवारी उजड़ गयी तो कोई पूछने वाला नहीं है।

९. इनको गरब करो सो नाहक, जे न भये किसी के।
ऐसे बिला जात हैं जैसे, बलबूला पानी के।
ईसुर मजा लूट लो ईसे, अपनी इस ज्वानी के।

किसी का यौवन सदा नहीं रहा। अगर किसी का रहा होय तो हमें बताओ इस यौवन पर घमण्ड नहीं करना चाहिए। यह किसी का नहीं, यह ऐसे समाप्त हो जाता है जैसे पानी का बुलबुला। ईसुरी कहते हैं कि अपनी इस जवानी का भरपूर मजा लूट लो।


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